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अनेकान्त
तुम जिस सूत्रार्थ को प्राप्त करना चाहते हो,' वह अभी उग्र मुनि का प्रतिषेषमेरे पास नहीं है। यदि वह कहे कि मैंने तो आपके पास हमारे संघ में जो मुनि दिनचर्या में लापरवाह रहता है, ऐसा सुना है और स्वयं भी देखा है। ऐसा कहने वाले है, अथवा प्रमार्जन ठीक नहीं करता, उसे हाडाहड-तत्काल को प्राचार्य कहते, तुम ठीक कहते हो, पहले मैं जो सूत्रार्थ वहन करने योग्य-प्रायश्चित्त मिलता है। देता था पर अब कई स्थल शंकित हो गए है। शंकित योगवाही मनिका प्रतिषेषसूत्रार्थ की वाचना देना आगम निषिद्ध है । अतः तुम उस
यहाँ भी जो मुनि योग का वहन करते है, वे मनचाही गण में जाकर वाचना लो, जहाँ प्राचार्य निःशकित होकर
विगय नहीं ले सकते । इस विधान के अनुसार इस सघ में वाचना देते है।
भी तुम्हे कोई सुविधा नहीं मिलेगी। स्वच्छन्द मुनि का प्रतिषेध'
इस प्रकार जो मुनि जिस सुविधा के लिए अपने गण हमारे सघ को समाचारी के अनुसार भी अकेला मुनि को छोड़कर पाता, उसे वैसी कठिनाई दिखाकर प्रतिषेध और कही तो जा ही नहीं सकता, किन्तु संज्ञाभूमि के लिए कर दिया जाता था। भी अकेला नहीं जा सकता, इसलिए इस सघ मे रहना भी उक्त विवेचन से स्पष्ट सिद्ध होता है कि उस समय तुम्हारे लिए सम्भव नही है।
के धर्म-सघो के प्रवर्तकों में परस्पर कोई तनाव के भाव मनुबड वर का प्रतिषेध'
नहीं थे, इसलिए शिष्यों के आदान-प्रदान में भी उन्हें किसी
प्रकार का सकोच नही होता था, आज धर्म-सघ अपनी ___हमारे सघ की समाचारी भी मंडलाधीन है। खान
वैचारिक संकीर्णता और रूढ़ता के कारण एक-दूसरे से पान और अध्यन मण्डलीस्थ करना होता है, इसलिए यहां
टूटकर इस प्रकार विलग हो चुके है कि पुन: उनको तुम्हारे लिए कठिनाई है।
जोडना कठिन नही, किन्तु असम्भव सा लग रहा है । मालसी मुनि का प्रतिषेष
स्थिति यहा तक पहुंच चुकी है कि कोई उदारचेता प्राचार्य हमारे यहाँ स्वस्थ और तरुण ही नही पर बाल, वृद्ध किसी धर्म-सघ के प्राचार्य से चरचा भी कर लेते है तो और रुग्ण मुनि भी दीर्घ भिक्षा के लिए घूमते है तो फिर कट्टर सम्प्रदायवादी लोगों में बहुत बड़ी हलचल मच तुम्हें छूट कैसे मिलेगी?
जाती है। उनकी धारणा के अनुसार असाभोगिक, असा
घ.मिक और भिन्न सामाचारिक संघों का मिलना ही १. वही, ६३५४ : णत्थेय मे जमिच्छिए सुत्त मए पागम मिथयात्व का प्रतीक है। सकिय त तु।
वर्तमान परिस्थिति के सदर्भ में अगर धर्म-सघ इस नय सकिय तु दिज्जइ णिस्मक सुते गवेसाहि ।। प्रकार की धारणा को लेकर एक-दूसरे से टूटते रहे तो २. निशीथ भाष्य ६३५५; व्यवहार भाष्य ६६५ : धर्म और समाज का कोई उद्धार नहीं कर सकेगे। अतः
एकल्लेण णलबभा वीयारादी विजयणा सच्छदे प्रत्येक धर्माचार्य अपनी दृष्टियों में सशोधन करे और एकरोग
दूसरे से निकट होकर अपनी विच्छिन्न परम्परा को पुनः अति ।
शृखलाबद्ध करे। ४. वही, ६३५६ : अलस भणति वाहि जीत हिंडसि. अम्ह ५. वही, ६३५६ : पच्छिद हाडाहड प्रावि । एत्थ बालाती।
६. वही, ६३५६ : उवसग्गं तहा विगति ।