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अनेकान्त
ग्रन्थों का मनन किया था, जिससे वे उसके रहस्य से लिया। आपने अपने बाबा से पूछा, परन्तु उन्होने इस परिचित हो गए थे। वे धर्मपुरा के नये मन्दिर की शास्त्र
कारण कोई उत्तर न दिया, उन्होने सोचा कि यह तार्किक
कारण कोई उत्तर न दिया. म सभा में प्रवचन करते थे। और जो जिज्ञासु साधर्मी पाजाते व्यक्ति है। मैं न छोडने की दलीलें दंगा, तो इसे जिद थे उन्हें उसका अर्थ बतला देते थे। अनेक कवियों ने उनसे चढ़ जायगा । अन्त में आपने अपनी पत्नी से सलाह ली, प्राकृत और सस्कृतका अर्थ सीखा था । आपने दिल्लीमे हिसार तो पत्नी ने कहा इसे छोड़ो तो नही, परन्तु यह निश्चय पानीपत अग्रवाल दि. जैन पचायत को कायम किया था। कर लो कि सच्चे मुकदमे ही किया करूँगा, झठे नहीं । उस समयको जनतामे वे बड़े प्रतिष्ठित माने जाते थे । आप आमदनी थोड़ी होगी, तो थोडे मे ही गुजर कर लगी। ने कोई ग्रन्थ रचना नही की। किन्तु रचयिताओं के कार्य
यह बात बाबूजीको जॅच गई। उन्होने उक्त निश्चयानुसार मे महयोग अवश्य दिया करते थे। जनमित्रमडल की। वकालत जारी रखी और थोड़े ही दिनों में आपकी सचाई लायब्रेरी में उनका फोटो भी लगा हुआ है। धनी होकर की शोहरत हो गई और उसका हाकिमो पर भी महाप्रभाव विद्वान होना कठिन है।
पडा। अडतीसवें विद्वान बाबू मूरजभान जी है, बाबू जी आपका विवाह सन् १८८२ मे ११ वर्ष की अल्प का जन्म नकुड जिला सहारनपुर मे वि० स० १९२५ मे उम्र में हो गया था, परन्तु सन् १८८९ के लगभग पत्नी हुअा था । आप के पितामह लाला नागरमल जी तहसील का वियोग हो गया। पश्चात् सन् १८६० मे दूसरा विवाह दार थे और पिता लाला खुशवतराय जी नहर के हुआ । इससे आपके दो पुत्र है। कुलवत राय और सुखन्नजिलेदार थे।
गय । कुलवन्तराय इन्जीनियर, और मुखवन्त राय इलाहासात वर्ष की उम्र के बाद आप जब तक पढते रहे बाद में प्रोवरसियर है। तब तक आप प्राय: अपने चाचा लाला अमृतराय जी के बाबूजी का सारा खानदान उर्दू, फारसी-दाँ था, धर्म साथ रहे, आपके चाचा पेमायश और नक्शाकसी के से किसी को विशेष रुचि नही थी, माथमे अरुचि भी मास्टर थे पहले होशियारपुर में और फिर लाहौर में । नहीं। पर्वो एव त्यौहारो पर लोग मन्दिर जाते थे और होशियारपुर में आपने मिडिल पास किया और लाहौर में उर्दू लिपिमे णमोकार मत्र, पद विनती आदि लिख पद मन् १८८५ (वि० सं० १९४२) मे मैट्रिक । इसके बाद लिया करते थे। किन्तु स्त्रियों प्रति दिन मदिर जाया
आप कालेज मे भरती हुए; परन्तु इसी समय पिता जी करती थी। का देहान्त हो जाने से प्रापको नकड़, वापिस आना पड़ा। आपने सबसे पहले होशियारपुर में लगभग बारह वर्ष
नकड़ मे घर पर रह कर ही सन् १८८७ मे आपने की उम्र मे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रसिद्ध मुनि आत्माराम लोअर सब प्राडिनेट प्लीडर परीक्षा की तैयारी की और के व्याख्यान सुने जो वहाँ चातुर्मास में आकर रहे थे। सन् १८८७ में पास हो गए । उन दिनों यह परीक्षा लाहौर मे आपके चाचा का मकान जैनमन्दिर के पास इलाहाबाद हाईकोर्ट की तरफ से होती थी।
ही था। यह मन्दिर दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनो सप्रदायो का प्लीडर हो जाने पर पहले एक साल तक तो आपने सयुक्त था। आप उसमे रोज दर्शन करने जाते थे और सहारनपुर मे वकालत की, और उसके बाद आप देवबन्द शास्त्र भी सुनते थे। उससे आपको जैनधर्म के जानने की आ गए और वहाँ सन् १९१४ तक वकालत करते रहे। जिज्ञासा उत्पन्न हुई।
वकालत का पेशा आपको पसन्द न था, परन्तु परि- उन्ही दिनो फर्रुखनगर से चौधरी जियालाल ने 'जैन स्थितियोंने कुछ ऐसा मजबूर किया कि आपको वकालत प्रकाश' नामका मासिक पत्र निकाला, आपको वह अत्यन्त का कार्य करना ही पडा । परन्तु मन मे उसके प्रति कसक प्रिय लगा. और आपने घर-घर घूम कर उसके अनेक बनी रही। और तीन-चार वर्षके बाद एक दिन तो मन में
दिन तो मन में ग्राहक बनाये। वहाँ के प्रायः सभी दिगम्बर घरों में वह ऐसा उद्वेग हा और वकालत छोड़ने का निश्चय कर पत्र प्राने लगा था। जैन समाज में हिन्दी का संभवतः