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अनेकान्त
जीने गरज कर कहा कि शास्त्रों की छपाई का काम तो कुएं में डाल'। सेवा से वे घबराते भी न थे, मुख्तार सा० मबसे पहले सहारनपुर जिले मे ही होगा, देखे कौन की प्रेरणा से वीर-सेवा-मन्दिर सरसावा मे कितने ही गेकता है।
महीने रहे, गोत्र कर्माश्रित ऊँचता-नीचता पर लेख भी __ अनंतर बाबूजी ने नकुड़ के रईस ला० निहालचन्दजी लिखे, भाग्य और पुरुषार्थ नामका लेख लिखा। अनेकान्त की सम्मति से जैन ग्रन्थो के छापने और उनके प्रचार के में उनके कई लेख प्रकाशित हुए, उनसे मुझे लेख लिखने लिए एक संस्था स्थापित की और लगभग एक हजार की प्रेरणा मिली। शोधकार्य में भी उनकी प्रेरणा रही। रुपया इकट्ठा कर ग्रन्थ छापने का कार्य शुरू भी कर दिया। उन्होंने मुझे अपनी जीवनी के कुछ नोट्स कराये थे, पर पहले शायद रत्नकरन्ड श्रावकाचार छपा था। बाबू ज्ञान- उनमे से कुछ नष्ट हो गए, जितने मिले उनके आधार पर चन्दजी इसमे शामिल थे। उन्होने लाहौरसे कई ग्रन्थ ही यह लेख लिखा है। छपवाये थे। इस तरह छापे का जितना विराध हुआ बाबूजी ने कई पुस्तके लिखी है, कई ग्रन्थोके अनुवाद उसके बावजद ग्रन्थो का प्रकाशन बराबर बढता ही चला हिन्दी मे किये है, उनमे द्रव्यसग्रह की टीका अच्छी है। गया । यद्यपि छपानेवालो से महानुभूति रखनवाला का भा जीवन-निर्वाह, जननी और शिश, विधवा कर्त्तव्य, ब्याही समाज ने बहिष्कार किया किन्तु उन्हे सफलता नही
बहू, असली नकली धर्मात्मा, तारादेवी, रामदुलारी, सती मिली। जैन हितोपदेशक पत्र भी बन्द हो गया। उसके
सतवती, गृहदेवी, मगलादेवी, मनमोहिनी उपन्यास, बाद हिन्दी मे 'ज्ञान प्रकाशक नामका पत्र निकाला।
भाग्य और पुरुषार्थ, पार्यमत लीला, ऋग्वेद के बनानेवाले कुछ वर्षों के बाद सन् १९०७ मे महासभा का जल्सा ऋषि, आदिपुराण पद्मपुराण-समीक्षा, द्रव्यसग्रह, षट्पाहुड़, कलकत्ता मे हया और उसमे बाबूजी शामिल हुए। उन परमात्मप्रकाश, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय और वसुनन्दि श्रावदिनो जैन गजट की बड़ी दुर्दशा हो रही थी। उसके लिए काचार । ज्ञान सूर्योदय दो भाग, जैनधर्मप्रवेशिका, श्रावियोग्य सम्पादक की आवश्यकता थी। तब बाबूजी ने अपने का धर्मदर्पण, युवकों की दुर्दशा आदि । सहयोगी पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार के सुपुर्द कराया, इन पुस्तको मेसे कुछ मैने पढ़ी है । भाषा अच्छी और और जैन गजट का सम्पादन प्रकाशन देवबन्द (सहारन- सरल है, उसमे दुरूहता नही है। कुछ पुस्तकोका प्रकाशन पर) से होने लगा। देवबन्द मे प्राकर जैन गजट खूब पं० नाथरामजी प्रेमी बम्बई ने किया है। उनके अनेक चमका और उसके १५०० ग्राहक हो गये । प० जुगल- लेख भी जनहितैषी में प्रकाशित हुए है, जिनका सम्पादन किशोर जी ने उसका अच्छा सम्पादन ३ वर्ष तक किया। सीजी ने किया था। उनके समीक्षा-लेखो परति उसमे बाबूजी का पूरा-पूरा सहयोग रहा। उन्ही दिनो
चला, प० लालारामजी शास्त्री ने उनका उत्तर लिखा, तो बाबजी ने आर्य समाज के प्रतिवाद मे 'पार्यमत लीला'
भी बाबूजी ने उनका कोई प्रत्युनर नही लिखा, उनकी ऋगवेद के बनानेवाले ऋषि आदि महत्त्वपूर्ण लेख लिखे।
आलोचना की ओर मैने ध्यान भी दिलाया, तब वे कहने १२ फरवरी सन् १९१४ को बाबूजी ने अपनी चलती लगे कि विवाद मे पड़ना निरर्थक है, मैंने अपने विचार हुई वकालत छोड़ दी। और समाज-सेवा मे अपना जीवन लिखे है, जनता को अच्छे लगे मान लेगी, न लगें नही अर्पण कर दिया। बाबूजी बडे मिलनमार और प्रगतिशील मानेगी, परन्तु सिद्धान्त की बात एक है कि अपनी बात विचारवाले विद्वान थे। समाज-सेवा मे वे अग्रणी रहे, कह देना और चुप हो जाना । कालान्तर मे उसका प्रभाव किन्तु प्रगतिशील विचारो के कारण लोकप्रिय न बन पढ़े बिना नहीं रहता। सके । समाज-सेवा के बदले में उन्होने कभी पुरस्कार नहीं आज बाबूजी यहाँ नही है, वे परलोकवासी हो चुके चाहा, और न नामवरी की इच्छा ही की। उन्होंने यशो- है, किन्तु उनका साहित्य ही उनकी सेवा का मूल्याकन लिप्साकी कभी चाह नहीं की, पर सेवा-कार्य से मुख मोड़ना कराता रहेगा। भी नहीं जानते थे। वे कहा करते थे कि 'नेकी करो और
(क्रमशः)