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अनेकान्त
का राजा बताया है कल्याण के कलचुरि राजवंश में संकम
सुकुलपाक बन्दों माणिकदेव । राजा ने सन् ११७७ से ११८० तक राज्य किया था। हो
सुगोमट स्वामी करु नित सेव ॥ सकता है कि उसी ने यह मन्दिर बनवाया हो । शीलविजय सत्रहवी सदी के ही कारजा के भट्टारक जिनसेन ने (सत्रहवी सदी) की तीर्यमाला के अनुसार शंकरराय तो भी यहा की यात्रा की थी - शिवभक्त था, मन्दिर उस की जिनभक्ता रानी ने बनवाया । जिनसेन नाव गुरुराय ने संघतिलक एते दिय । था (जैन साहित्य और इतिहास पृ० ४४८) ।
माणिक्यस्वामी यात्रा सकल धर्मकाम बहु बहु किय ॥ पन्द्रहवी सदी के मराठी लेखक गुणकीति ने अपने
(भट्टारक सप्रदाय पृ०१६) धर्मामृत ग्रंथ मे भी माणिक स्वामी को नमस्कार किया इसी वर्ष दीपावली की छद्रियो में हम ने इस क्षेत्र के है (परिच्छेद १६७)
दर्शन किये। इस समय क्षेत्र पूर्णत: श्वेताम्बर सप्रदाय कुल्लपाख्य माणिक स्वामिस नमस्कार माझा। के अधिकार में है यद्यपि उपर्युक्त वर्णनो से स्पष्ट है कि
सोलहवी सदी के गुजराती लेखक सुमतिसागर की मध्ययुग मे दिगम्बर यात्री भी यहा बराबर जाते रहे है । तीर्थजयमाला (पद्य ११) में भी माणिकस्वामी को यहां के मन्दिर के मभागृह में मुख्य मूर्ति माणिकस्वामी वदन है
के अतिरिक्त अन्य बारह भव्य (करीब एक मीटर ऊंची) सुविझाचल बावणगज देव ।
अर्धपद्मासन मूतिया है। इन की शिल्पशेली दाक्षण भारत सुगोमट माणिकस्वामी सेव ॥
के श्रवणबेलगोल, कारकल, मूडबिद्री आदि स्थानों को सत्रहवी सदी के गुजराती लेखक ज्ञानसागर के सर्व
मूर्तियो के समान ही है इन के पादपीठो पर प्रतिष्ठा सबधी तीर्थवन्दना में भी एक छप्पय इस विषय मे है
लेख अवश्य ही रहे होगा खद की बात है कि इन सभी देश तिलंग मझार माणिक जिनवर वदो।
मूर्तियो के पंगे तक सीमन्ट का प्लास्टर इस तरह कर भरतेश्वरकृत बिब पूजिय पाप निकदो ॥
दिया गया कि वे पादपीठ नष्ट प्राय. हो गये है। केवल पांच मणि सुप्रसिद्ध नीलवर्ण जिनकामह ।
शिलालेख मन्दिर के बाहरी प्राकार में है जिसके अनुसार पूजत पातक जाय दर्शनली सुख थायह ॥
इस का जीर्णोद्धार जहागीर बादशाह के जमाने में केसर. किनर तुबर अपछरा सकल मिल सेवा करे ।
कुशल गणी ने करवाया था। ब्रह्म ज्ञानसागर वदति माणिकजिन पातक हरे॥
नोट- इस लेख में उद्धृत सभी रचनाएँ पूर्ण रूप सत्रहवी सदी के ही जयसागर की तीर्थ जयमाला के में हमारे द्वारा सपादित 'तीर्थवन्दन सग्रह' १० जीवराज ग्यारहवें पद्य मे भी कहा है
ग्रथमाला शालापुर, मे सगृहीत है।]
सुख का स्थान रे चेतन । तू सुख की खोज में इधर उधर भटक रहा है। उसकी प्राप्ति के लिये मृग की भाति छलागे भर रहा है। पर यह सब भटकना तेरा व्यर्थ है; क्योकि पर वस्तुप्रो और परस्थानो मे सुख नही है । तेरा सुख तो तेरे अन्दर है। बाहर नहीं, जरा अन्तर दृष्टि को उघाड कर देख । जैसे तिलो मे तेल और गोरस में मक्खन है, या दूध में घी है, धूलिकणों और पानी मे नही है । घट के पट खोल कर अन्दर झाक, तुझे सुख अवश्य मिलेगा।
चर्म चक्षुत्रो से दिखने वाले इन बाह्य पदार्थो मे उम सुख का लेश भी नही, बाह्य पदार्थों की चमक-दमक में जो तुझे मुग्व का-सा आभास हो रहा है वह सुखाभाम है। बाह्य पदार्यों के सयोग में तू सुख की कल्पना कर रहा है ? यह तेरा अजान है, तू उनके सयोग मे सुख मानता है और वियोग में दुग्व, “सयुक्ताना वियोगो हि भवता हि नियोगतः । सयोग वियोग के साथ मिश्रित है। तू इस भौतिक सामग्री के जुटाने मे जीवन की अमूल्य घडिया बिता रहा है, यह तेरे अज्ञान की पराकाष्ठा है । वह सुख नही दुख है, तू उस पराधीन, विनश्वर सुख के पीछे मत दौड । अन्नदृष्टि और विवेक से काम कर और आत्मस्थ होकर स्वरूप में मग्न होने का प्रयत्न कर तुझे सच्चे स्वाधीन सुख का अनुभव होगा।
-परमानन्द