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किरण ११-१२] श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन
२६७ सूत्रकालके पश्चात् वादियोंका युग पाया। वादि- स्तोत्र सच्चे साधकों के लिये 'नन्दादीप' है। समन्तभद्रसे जब प्रतिवादियों को केवल पागम और परम्परा मान्य नहीं थी। पूछा गया कि अर्हतभक्ति-पूजन-प्रचनादिकके लिये प्रतिपक्षी अपनी जय-पराजयके लिये न्याय-युक्तिको कसौटी प्रारंभादि सावध क्रिया करनी पड़ती है तब भक्तिसे पाप पर अपने सिद्धान्त कसने लगे, तब वीर-शासनको न्याय-तर्क- ही पुण्यके बदले मिलेगा ? इस शंकाका समाधान समन्तकी कसौटी पर कसनेके लिये महान् तार्किक योगियोंका भद्र स्वयं सुन्दर दृष्टान्त देकर करते हैं- . उदय हुआ। समन्तभद्रस्वामी इसी तर्क युगके प्रवर्तक पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावधलेशो बहुपुण्यराशौ। कहे जाते हैं। कुन्दकुन्दसे कार्तिकेय तक अध्यात्मरहस्य दोषायनालं कणिकाविषस्य न दृषिका शीतशिवाम खोलना ही मुख्य उद्देश्य था। सूत्र युगमें सूत्रों-द्वारा जिन- यह वाक्य जब अंत:करणको स्पर्श करता है तब शासनको बांधकर प्रभावना करना उद्देश्य था। इसके अनन्तर भगवचरणाविंदमें अपना मस्तक सहज ही नत हो जाता है। न्याय-तर्क-युक्ति-भागमकी कमौटी पर पूर्व परम्पराको बाधा समन्तभद्र कहते हैं कि जिनोंकी भक्तिका जिनोंके लिये कुछ न पहुंचाते हुए वीरशासनको प्रभावना करनेका काल पाया। प्रयोजन नहीं क्योंकि वे स्वयं वीतरागी हो गये हैं। और यह काल स्वमतोंकी भेरी बजाकर और अन्य वादियोंको न निन्दाका ही कुछ प्रयोजन है, क्योंकि वे 'विवान्तवैर' हो
आह्वान देकर वाद-विवाद में उन्हें परास्त करनेका था । इसी चुके हैं। प्रयोजन तो स्वयं साधकके लिये अनिवार्य है। 'पुण्ययुगके प्रवर्तक स्वामी समन्तभद्र होनेसे इनके लिये भी अपनी गुण-स्मृति' ही साधकके चित्तका दुरित-पाप धो सकती है। मेरी बजाना अनिवार्य और आवश्यक हो गया । इस स्तोत्रकी दूसरी एक खास विशेषता यह है कि [अब पहले समन्तभद्रकृत उपलब्ध कृतियोंका विषय परिचय स्तोत्र द्वारा जैसे स्वाद्वाद-अनेकान्तका तत्त्व दिखलाया है, संक्षेपमें दिया जाता है।
उसी तरह अपने चरित्र पर कुछ प्रकाश डालने वाले शब्दोंका समन्तभद्र कृत उपलब्ध ग्रंथ और विषय परिचय
उपयोग भी किया गया है। यहां उसके कुछ प्रमाण दिये
जाते हैं। १. समन्तभद्र स्तोत्र या चतुर्विशतिस्तुतिमय स्वयंभू स्तोत्र ।
1. आदिनाथ-स्तुतिके तीसरे श्लोकमें 'भस्मसारिक्रयाम्' १. देवागमस्तोत्र या प्राप्तमीमांसा
का उपयोग। ३. जिनशतक या स्तुतिविद्या ।
२. संभव-स्तुतिमें-'रोगे: संतप्यमानस्य' और वैद्यकी ४. युक्त्यनुशासन या वीरजिनस्तोत्र।
उपमा 'जिन' को देना। ५. रत्नकरण्डश्रावकाचार या समीचीनधर्मशास्त्र ।
३. 'व्याहूतचन्द्रप्रभः' के समान चन्द्रप्रभ-स्तोत्रका दूसरा स्वयंभूस्तोत्र ('साधकोंका नदादीप')
श्लोक। स्वयंभूस्तोत्रमें आदिजिनसे लेकर वाजिन तक क्रमश: ४. पार्श्वनाथस्तोत्रमें-तमाल-नील ( कृष्णा नदी ) स्तुति की गई है। यह स्तुतिधारा केवल भकिका रूप लेकर भीमाका उल्लेख जो जन्मस्थल है। और 'फणामंडल' ही नहीं बहता, बल्कि भकिक आवरणमंस स्यादवाद- 'नाग' 'वनौकस' जो उनका पितृदेश था। चन्नप्रभस्तुतिके अनेकाम्तत्वका दिव्य तेज भी प्रवाहित हो रहा है । जीवनकी समयतो प्रसिद्ध हो व्याहृतचन्द्रप्रभ: वचन है। इन्हें बंधविशिष्ट घटनाके समय अपनी दृढ श्रद्धा प्रगट करना केवल रचना और कविता-कुशलनाकी ऋद्धि प्राप्त थी। प्रत्येक
आवश्यक ही नहीं किन्तु अनिवार्य हो गया, तब इस ग्रन्थमें स्तुतिका पुट देकर साथमें तत्त्वकी बुनाई की गई है। महान् स्तोत्रकी निर्मिति हुई है। उनकी आत्मा बाह्यविरोधी और खास ध्यान इस बात पर जाता है कि व्याधिमुक्त शत्रिका प्राबल्य रहने पर भी जिनस्तुतिरसमें इतनी गहरी आनन्दसे इस स्तोत्र के अंतमें 'मे, मम, माश, मद्य, मयी अनुभूति ले रही थी कि उनकी वाणी सरस्वतीको स्वच्छन्द प्रादि शब्दों द्वारा वर, अनुग्रह, कृपा मांगी है। विहारभूमि बन गई। और फिर वही भद्र-वाणी स्वय स्फूर्त पू.५० जुगलकिशोर जीके शब्दोंमें 'यह ग्रंथ स्तोत्रकी होकर शब्दब्रह्म बन गई । वह स्वयंभू-स्तोत्र स्वयंभू नामके पद्धतिको लिये हुए है, इसमें वृषभादि जिनोंको स्तुति की समान अबाधित रहा प्रभाचन्द्राचार्यके शब्दोंमें यह स्तोत्र गई है, परन्तु यह कोरा स्तोत्र नहीं, इसमे स्तुतिके बहाने 'निःशेषजिनोक्तधर्म' है, 'असम' अद्वितीय स्तोत्र है। यह जैनागमका मार एवं तत्वज्ञान कूट कूट कर भरा हुआ है।"