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मैत्री भावना
भगवान् महावीर ने मैत्री का बहुत बड़ा सूत्र दिया। एक पादरी ने आचार्यश्री से कहा, प्रभु ईशु ने कितनी बड़ी बात कही है कि अपने शत्रु के साथ भी मैत्री करो। कितनी बड़ी बात है ? क्या इससे बड़ी बात हो सकती है ? आचार्यश्री ने कहा, यह बड़ी बात है, किन्तु भगवान् महावीर ने इससे आगे की बात कही है कि किसी को शत्रु मानो ही मत। पहले शत्रु माने और फिर मैत्री करे इससे तो अच्छा है कि किसी को शत्रु माने ही नहीं। पादरी अवाक् रह गया। उसके अहं पर अव्यक्त चोट हुई। उसने रहस्य समझ लिया।
कुछ व्यक्तियों ने लिंकन से कहा, आपके शत्रु बहुत हैं। अभी आप सत्ता में हैं। उनको समाप्त क्यों नहीं कर देते ? लिंकन ने कहा, 'उन्हें समाप्त कर रहा हूं।' लोगों ने कहा, अभी तक किसी को जेल में नहीं डाला, फांसी नहीं दी, देश से नहीं निकाला। फिर कैसे समाप्त कर रहे हैं ? लिंकन बोले, शिष्ट व्यवहार से सबको जीत रहा हूं। कुछ ही समय में वे मेरे मित्र बन जाएंगे। फिर कोई शत्रु नहीं रहेगा। सब शत्रु समाप्त हो जाएंगे।।
यह मैत्री का महान् सूत्र है। इसके समक्ष शत्रु कोई रहता ही नहीं। मैत्री की भावना जागने पर अनेक समस्याएं समाहित हो जाती हैं। प्रतिदिन हमारे मन पर अनेक मैल जमा होते जा रहे हैं। उनमें सबसे क्लिष्ट मैल है शत्रुता का, द्वेष का। इस दुनिया का यह अटल नियम है कि आदमी जैसा चाहता है वैसा होता नहीं है। इस संसार में रुचि और चिंतन का भेद है, व्यवहार और व्यवस्था का भेद है, रहन-सहन और खान-पान का भेद है, रीति-रीवाजों का भेद है-ये सब भेद न रहें, यह कभी संभव नहीं है। रुचि की भिन्नता है तब भेद समाप्त नहीं हो सकते। इन भेदों के कारण हमारे मन में शत्रुता और द्वेष का भाव पनपता है, यह अवांक्षनीय है। भगवान् ने कहा, दूसरे के साथ बुरा व्यवहार करने में यह देखो कि तुम्हारा स्वयं का अहित हो रहा है। दूसरे का अहित हो या नहीं, यह निश्चित नहीं है, किन्तु तुम्हारे अहित निश्चित है, उसमें कोई विकल्प नहीं है। दूसरे के प्रति तुम्हारे मन में बुरा विचार आया. चाहे उसका पता किसी को न लगे, पर उसका अंकन तुम्हारे मस्तिष्कीय कोशों में जो जाएगा, उसका बुरा परिणाम तुम्हें अवश्य ही भोगना पड़ेगा। दूसरे का अनिष्ट करने में स्वयं का अनिष्ट है-जो
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