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कर्तव्यनिष्ठा अनुप्रेक्षा
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जाता है। परन्तु दायित्व की अनुभूति अवश्य होनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति जिसे दायित्व का अनुभव न हो, उसमें भी परिवर्तन आने लग जाता है। चरित्र-निर्माण की दूसरी श्रेणी का हेतु है-दायित्व-बोध । युवक का कर्तव्य-बोध
हम धर्म की बात सोचते हैं तो वह देशातीत और कालातीत बात होती है। उसमें देश और काल की कोई मर्यादा नहीं होती। न कोई बालक, न कोई बूढ़ा और न कोई युवक। किन्तु जहां व्यवहार की क्रियान्विति का प्रश्न होता है, वहां देश को भी मानना होता है और काल को भी मानना होता है। उन दोनों से हटकर हम व्यवहार को नहीं चला सकते, कोई भी क्रियान्विति नहीं कर सकते।
युवक शब्द भी एक काल की संज्ञा को सूचित करता है। यौवन दो अवस्थाओं के बीच एक शक्ति की अवस्था है। बालक में क्षमताएं होती हैं किन्तु विकसित नहीं होती, क्योंकि उसका शरीर-तंत्र समर्थ नहीं होता। बूढ़े में शरीर-तंत्र और क्षमताएं दोनों विकासातीत हो जाती हैं, विकास से परे चलने लग जाती हैं। उसके शरीर की बहुत सारी कोशिकाएं, मस्तिष्क की बहुत सारी कोशिकाएं खप चुकती हैं और शरीर का तंत्र शिथिल हो जाता है। उसमें अनुभव होते हुए भी कार्य-क्षमता समाप्त हो जाती है। इन दोनों के बीच की अवस्था है-यौवन । युवा दोनों के बीच में है। उसमें शरीर की क्षमता भी है और क्रियान्विति की क्षमता भी है। इसीलिए युवक एक शक्ति का या शक्ति की अभिव्यक्ति का स्रोत होता है। इसलिए युवक से बहुत आशाएं होती हैं। कोई भी देश, कोई भी समाज, कार्य-क्षमता का जहां प्रश्न है, वहां युवकों को आगे रखता है। चाहे देश-रक्षा का कार्य हो, चाहे समाज सेवा का कार्य हो, चाहे और कोई दूसरा, तीसरा, चौथा कार्य हो, युवक की अपेक्षा होती है। किन्तु युवक के लिए भी बहुत कठिनाई है। कठिनाई इसलिए कि एक ओर उसके शरीर के सारे उपकरण बहुत सक्रिय होते हैं। रक्त भी बहुत तेज बहता है। दूसरी ओर दुनिया का वातावरण उसके प्रतिकूल भी हो सकता है और होता भी है। उन दोनों में सामंजस्य स्थापित करना, दोनों के साथ संगति जुटा लेना बहुत कठिन बात है और यही संघर्ष आज सारी दुनिया में चल रहा है। आज के साहित्य का एक शब्द है-'भोगा हुआ यथार्थ ।' हमें केवल कल्पना के जीवन में नहीं जीना। युवक में बहुत कल्पनाएं उभरती हैं। उसका घरेलू पक्ष उसके अभिभावकों के हाथ में होता है। समाज का क्षेत्र कुछ पुराने कार्यकर्ताओं के हाथ में होता है तो युवक के लिए कल्पना करने का
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