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मानवीय एकता अनुप्रेक्षा
आध्यात्मिक व्यक्ति तोड़ता नहीं, जोड़ता है। वहां तोड़ने वाला कोई तत्त्व नहीं होता। इसी सचाई को प्रकट करने के लिए यह घोषणा की गई थी-'एक्का मणुस्सजाई'-मनुष्य जाति एक है। भौतिक मंच से यह शब्द कभी उच्चरित नहीं हो सकता। जिस मंच से यह घोषणा हुई कि मनुष्य जाति एक है' वह आध्यात्मिक मंच था। वहां व्यक्ति में कोई भेद का अनुभव नहीं किया गया। सभी मनुष्यों को एक ही देखा गया और एक ही जाना गया। उसके सिवाय, मनुष्य जाति के सिवाय, कोई दूसरी जाति ही नहीं है जो आध्यात्मिक व्यक्तित्व जोड़ता है और भौतिक व्यक्तित्व तोड़ता है।
. आध्यात्मिक व्यक्तित्व में पदार्थ का भोग होगा। आध्यात्मिक व्यक्ति खाएगा, पीएगा, कपड़े भी पहनेगा, मकान में भी रहेगा वह सब कुछ करेगा; पर तोड़ेगा नहीं। वह यह कभी नहीं कहेगा मेरा कपड़ा, मेरा मकान। वह कहेगा-इस मकान में मैं अभी रह रहा हूं, यह कपड़ा मेरे पहनने के काम आ रहा है। इस कथन के पीछे एक सिद्धान्त है, ममत्व नहीं है। सचाई यह है कि मकान किसका हो सकता है ? किसी का नहीं हो सकता। आज तक भी यह संपदा और भूमि किसी की नहीं बनी इसलिए कहा जाता है, यह संपदा और भूमि शाश्वत कन्याएं हैं, आज तक इनका पाणिग्रहण नहीं हुआ, विवाह नहीं हुआ। सम्पत्ति शाश्वत कुंआरी रहती है। अनन्त काल बीत जाने पर भी वह वैसी ही रहती है, वैसी ही रहेगी।
पदार्थ का भोग करना और पदार्थ के साथ ममत्व को जोड़ना-ये दोनों भिन्न बातें हैं, ये दोनों एक नहीं हैं। भौतिक व्यक्ति में पदार्थ का उपभोग अवश्य होता है, पर ममत्व नहीं जुड़ता। उसमें ‘पदार्थ' और 'मेरा' अलग रहते हैं, जुड़ते नहीं।
महावीर ने मनुष्य जाति की एकता का उद्घोष किया। 'जन्मना जाति की व्यवस्था ने मनुष्यों में ऊंच-नीच और छुआछूत की भावना पैदा की, समत्व के सिद्धांत का विखंडन किया। इस स्थिति में मनुष्य जाति की एकता का उद्घोष नहीं होता तो अहिंसा अर्थहीन हो जाती।' महावीर ने कहा-'मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से शूद्र।' यह तात्त्विक नहीं है, केवल व्यवहार की उपयोगिता है। मनुष्य केवल मनुष्य है। वह विद्याजीवी होता है तब ब्राह्मण हो जाता है। वही व्यक्ति
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