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आत्मानुशासन अनुप्रेक्षा
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नियम कृत्रिम नहीं होगा, किन्तु सहज होगा। प्रेरणा का मूल भय नहीं होगा किन्तु कर्तव्यनिष्ठा होगी। प्रभु की प्रार्थना कैसे करें ?
प्रार्थना का सूत्र है-तन्मयता, प्रभुमय होने की शक्ति का जागरण। जब तक तन्मयता नहीं आती, तब तक प्रभु से कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। जो व्यक्ति अपने पुरुषार्थ को प्रदीप्त करता है, प्रभुमय होने की शक्ति को जगाता है, उसकी प्रार्थना सफल हो जाती है। यदि ऐसा नहीं होता है तो वर्षों प्रार्थना करते रहने पर भी कुछ नहीं होता। आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है
वीतराग सपर्यात, तवाज्ञापालनं परम् ।
आज्ञासिद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च।। प्रभु की पूजा और प्रार्थना से भी अच्छा है कि व्यक्ति प्रभु की आज्ञा का पालन करे। वह लड़का पिता का प्रिय नहीं होता, जो पिता को प्रतिदिन नमस्कार करता है, किन्तु पिता की आज्ञा नहीं मानता। पिता को वह पुत्र अच्छा लगता है, जो आज्ञा का पालन करता है, अनुशासन में रहता है।
जो प्रभु के अनुशासन में चलता है, आज्ञा का पालन करता है, आज्ञा के अनुसार चलता है, वही वास्तव में प्रभु की प्रार्थना करने का अधिकारी हो सकता है। जो प्रभु के आदेशों को नहीं मानता, उसके विपरीत आचरण करता है, वह प्रार्थना करने का अधिकारी नहीं हो सकता। प्रभु का आदेश है-पवित्र रहो, किन्तु आदमी विचारों और आचरणों से गन्दा रहता है। प्रभु का आदेश है-बुरे आचरण मत करो, ईमानदार रहो, किन्तु आदमी बुरे आचरण करता है, बेईमानी में फंसा रहता है। वैसा आदमी प्रार्थना करने योग्य नहीं है। वह प्रभु के आदेशों का उल्लंघन कर प्रभुमय बनने की अपनी योग्यता खो डालता है। वैसा व्यक्ति यदि प्रार्थना करता है तो यह विडम्बना है, आत्म-प्रवंचना है।
संसार में जितने भी विशिष्ट व्यक्ति हुए हैं-राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा आदि उन्होंने वह रास्ता चुना जो ऊंचाई की ओर ले जाता है, मोक्ष या निर्वाण की ओर ले जाता है। इसी रास्ते पर चलकर वे महापुरुष बने।
जनतंत्र का मूल आधार है-स्वतन्त्रता और उसका मूल आधार है-व्यक्ति का आत्मानुशासन । जब कोई व्यक्ति अपने आप पर अपना नियन्त्रण रख सकता है, तभी वह स्वतन्त्रता की लौ प्रज्वलित कर सकता है। अधिनायकता के युग में भय और आतंक का राज्य होता है, इसलिए व्यक्ति के आत्मानुशासन का विशेष मूल्य नहीं होता। जनतन्त्र के युग में अभय का राज्य
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