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अमूर्त चिन्तन
आत्म-नियंत्रण का तीसरा सूत्र है - प्रतिसंलीनता । इसका अर्थ है - जो कुछ हो रहा है वह न होने दें, किन्तु उसे उलट दें। दो क्रम चलते हैं । एक है प्राकृतिक क्रम और एक है साधना का क्रम । हमें कुछ विशेष अवयव उपलब्ध होते हैं। एक है शक्ति केन्द्र । सारे काम की चेष्टाएं इस केन्द्र से संचालित होती हैं । काम की सारी वृत्तियां यहां उभरती हैं और मनुष्य इसके सहारे अपनी काम-वासना पूरी करता है। यह प्रकृति द्वारा प्रदत्त संस्थान है काम-वासना की पूर्ति के लिए । प्रतिसंलीनता के द्वारा हम बदल सकते हैं । यह है साधना का क्रम ।
आत्म-शोधन की प्रक्रिया
आत्म-नियंत्रण से परे आत्म-शोधन की चर्चा प्राप्त होती है । आत्म-शोधन हुए बिना आत्म-नियन्त्रण का कार्य पूरा नहीं होता । आत्म-नियन्त्रण की अपनी सीमा है। आदत को बदलने के लिए, स्वभाव को बदलने के लिए, व्यक्तित्व के पूरे रूप को बदलने के लिए आत्म-शोधन आवश्यक है। यह कोरा दिशान्तरण नहीं है, मार्गान्तरीकरण नहीं है, किन्तु संपूर्ण रूपान्तरीकरण है । मनोविज्ञान का मार्गान्तरीकरण एक मौलिक वृत्ति के मार्ग को बदलने की प्रक्रिया है, उसको दूसरी दिशा में ले जाने की पद्धति है । एक व्यक्ति में काम की मनोवृत्ति है । जब वह वृत्ति उदात्त बनती है, तब कला, सौन्दर्य आदि अनेक विशिष्ट अभिव्यक्तियों में बदल जाती है। आत्म-शोधन में दिशान्तरण नहीं होता, किंतु स्वभाव मूलतः बदल जाता है । उसका सर्वथा विलय हो जाता है और वह वृत्ति बदल जाती है। उसके तीव्र विपाकों, तीव्र अनुभवों को इतना मन्द कर दिया जाता है कि वह आदत या स्वभाव कोई बाधा उपस्थित न कर सके।
प्रश्न है कि आत्म-शोधन की प्रक्रिया क्या है और उसके सूत्र कौन-कौन से हैं ? अध्यात्म के साधकों ने आत्म-द्रष्टाओं ने इस दिशा में बहुत ही महत्त्वपूर्ण खोजें कीं और सौभाग्य है कि उनकी खोजें आज भी हमारे समक्ष सुरक्षित हैं ।
उनका पहला चरण है- कायोत्सर्ग । कायोत्सर्ग है- शरीर का शिथिलीकरण । इससे पुरानी आदतों में परिवर्तन आता है, उनका शोधन होता है ।
कायोत्सर्ग का संकल्प सूत्र है- 'तस्य उत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहिकरणेणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्धायणट्ठाए ठामि काउस्सग्गं ।'
साधक संकल्प की भाषा में कहता है- 'जो आदत या स्वभाव प्रिय नहीं
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