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अनासक्ति अनुप्रेक्षा
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और बुरा मानने के साथ दूसरी भावना काम कर रही है। इसलिए अनासक्त भाव से देखें, तटस्थ भाव से देखें, केवल यथार्थ दिखेगा। जो घटित हो रहा है, उसे ही देखें। किसी चिंतन या भावना या संवेदना को साथ न जोड़ें। अनासक्त भाव से देखना, राग-द्वेष रहित चेतना से देखना, तटस्थ भाव से देखना, जो जैसा है उसे वैसा ही देखना, यह है हमारा देखने का प्रकार।
अनासक्ति एक महान् प्रयोग है। गीता का नवनीत है-अनासक्ति योग। क्या उसका स्वाध्याय या विवेचन करने वाला कर्म के क्षेत्र में अनासक्त बन जाता है ? प्रतिदिन पारायण करने वाले में भी अनासक्ति का अवतरण दिखाई नहीं देता। इसका हेतु है प्रयोग का अभाव ।
योगीराज कृष्ण ने कहा-मैं उदासीन की भांति आसीन हूँ। कर्मों में अनासक्त हूं। इसलिए वे कर्म मुझे बांध नहीं पाते।
न च मां तानि कर्माणि, निब्नन्ति धनंजय !
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ।।' प्रयोग के बिना कोई मनुष्य उदासीन नहीं हो सकता। सामान्यत: हर मनुष्य प्रिय और अप्रिय संवेदना में जीता है। इनसे ऊपर उठना साधना के बिना संभव नहीं। गीता में उदासीन या तटस्थ का अर्थ है आत्मवान् । आत्मवान् ही अनासक्त हो सकता है। उसे कर्म नहीं बांध पाते।
'योगसंन्यस्तकर्माणि, ज्ञानसंच्छिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि, निब्नन्ति धनंजय !।।' आत्मवान् होने का प्रयोग है-वैभाविक क्रिया के अकर्तृत्व का अनुभव । देखना, सुनना, छूना, सूंघना, श्वास लेना-ये सब इंद्रियों के कार्य हैं। इन्द्रियां अपने-अपने विषय में प्रवृत्त हो रही हैं। संवेदन मेरा मौलिक स्वभाव नहीं । इस प्रकार अपने ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूप की अनुभूति करने वाला आत्मवान् हो जाता है। यह सब अभ्यास पर निर्भर है।
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