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अमूर्त चिन्तन
धार्मिक इसे शांत भाव से सहन कर लेता है। दूसरों को पता नहीं चलता कि इसको कष्ट हो रहा है। मैंने देखा कुन्दनमलजी स्वामी को। उनके मस्से में घाव हो गया। डाक्टर ने कहा-चीरना होगा। चौथमलजी स्वामी कैंची से चीरने लगे। बिनां सूंघनी के वे मूर्ति की तरह बैठे रहे। कहने लगे-चौथमलजी ! काटना हो जितना एक साथ काट लो। शांत भाव से सहने की शक्ति कहां से आती है ? जिनमें यह भेदज्ञान हो जाता है कि आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, उनमें सहने की शक्ति बढ़ जाती है।
___मैंने अपनी माता साध्वी बालूजी से कहा-'माला जपती हो, वह तो ठीक है। इसके साथ थोड़ा और जोड़ दो-आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है।' इस मंत्र को उन्होंने अच्छे ढंग से पकड़ लिया। जब कभी मैं जाता और पूछता-कैसे हैं ? तो यही उत्तर मिलता-मेरे कोई बीमारी नहीं है, बिलकुल ठीक है, परम शांति है ? मैंने फिर कहा-बीमारी न कहना क्या असत्य नहीं है ? उन्होंने उत्तर दिया-नहीं है। आत्मा में शांति है, बीमारी शरीर में है, मेरे नहीं।
वे साध्वियों से कहती-अब तुम्हारा-हमारा सम्बन्ध नहीं है, तुम अपने में और मैं अपने में।
मनुष्य को सुखी जीवन का सूत्र देते हुए बर्टेड रसेल ने कहा-'वही मनुष्य सुखी है जो अन्य पुरुषों के साथ सम्बन्धों को न तो अचानक तोड़ देता है और न उनमें विषैलापन उत्पन्न होने देता है। जिसके व्यक्तित्व में अन्य व्यक्तित्वों के लिए स्थान है, वह समस्त मानव समाज के साथ आत्मीयता स्थापित करके आनन्द का अनुभव करता है, वह सदा सुखी है।'
उक्त मन:स्थिति का निर्माण सहिष्णुता के धरातल पर हो सकता है। जो व्यक्ति सहना जानता है, वह क्षमा के महान आदर्श तक पहुंच सकता है। सामूहिक जीवन की सफलता और सरसता का राज है-सहिष्णुता। ईसा की सतरहवीं शताब्दी में जापान के तत्कालीन मंत्री ओचीसान का परिवार अपने सौमनस्य के कारण पूरे जापान में ख्याति प्राप्त कर रहा था। सौ व्यक्तियों का प्रबुद्ध परिवार। वर्षों से संयुक्त परिवार की परम्परा। कभी किसी छोटी-मोटी बात को लेकर परस्पर वैमनस्य नहीं हुआ। जापान के सम्राट यामातो के कानों तक यह बात पहुंची। उनके मन में आश्चर्य का भाव जागृत हुआ। स्थिति की सही जानकारी प्राप्त करने के लिए वे मंत्री के घर पहुंचे। उस परिवार का दृश्य सचमुच विस्मित करने वाला था। सम्राट ने इस असीम सौहार्द के सम्बन्ध में जिज्ञासा व्यक्त की, कारण जानना चाहा। परिवार का
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