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अभय की अनुप्रेक्षा
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आज का प्रत्येक आदमी भयभीत है । बड़ा-से-बड़ा व्यापारी भी भयमुक्त नहीं है । अध्यापक भी भयमुक्त नहीं है । वह भले ही दूसरों को भय की बात न कहे पर भीतर वह भयाक्रांत है कि कब, कैसे विद्यार्थी उसकी पिटाई कर दे ? मिनिस्टर या अन्य शिक्षाधिकारी उस पर झूठे सच्चे आरोप लगाकर निष्कासित कर दे ? सर्वत्र भय व्याप्त है, क्योंकि सर्वत्र प्रमाद है, विस्मृतियां हैं, असत्य है। प्रज्ञा सोई पड़ी है, केवल बुद्धि का जागरण हुआ है । बुद्धि भय को नहीं मिटा सकती । वह भय को सूक्ष्मता से पकड़ लेती है । बुद्धिमान आदमी भय को दूर से पकड़ लेता है । आज के वैज्ञानिक भयग्रस्त हैं । आबादी बढ़ रही है । वह दिन भी आ सकता है जिस दिन आदमी को खाने के लिए अनाज नहीं मिल सकेगा । आबादी की यही रफ्तार रही तो वह दिन भी दूर नहीं है जब आदमी को चलने के लिए रास्ता नहीं मिल पाएगा । उसे रहने के लिए मकान और खाने को रोटी नहीं मिल पाएगी। वैज्ञानिक इन सारी समस्याओं से भयभीत हैं । सामान्य आदमी के समक्ष यह भय नहीं है । वह इस विषय में जानता ही नहीं, सोचता ही नहीं । वैज्ञानिक जानता है, निष्कर्ष निकालता है। सौ वर्ष बाद कोयला और पेट्रोल समाप्त हो जाएंगे, ऊर्जा के सारे स्रोत समाप्त हो जाएंगे, उस समय विश्व की क्या स्थिति होगी ? यह भय वैज्ञानिकों को है, औरों को नहीं । वे इसकी कल्पना ही नहीं कर सकते । बुद्धि जितनी प्रखर तेज होगी उतना भय बढ़ेगा । बुद्धि का काम भय को मिटाना नहीं है। उसका काम है नए-नए भयों को उत्पन्न करना । अभय आता है प्रज्ञा से । जब प्रज्ञा जागती है, तब आदमी 'तथाता' बन जाता है । 'तथाता' का अर्थ है वर्तमान में जीना, जो प्राप्त है उसे स्वीकार कर लेना । घटना को घटना के रूप में स्वीकार कर लेना 'तथाता' है। उसके साथ भय को जोड़ना आवश्यक नहीं है । तथाता' आती है प्रज्ञा से । बाह्य विस्मृति और अन्तर जागरण यह है 'तथाता' ।
अभय की मुद्रा
अभय का भाव जब-जब जागता है, तब-तब अभय की मुद्रा का निर्माण होता है। अभय की मुद्रा का बाहरी लक्ष्य है - प्रफुल्लता । चेहरा खिल जाएगा ।
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