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सहिष्णुता अनुप्रेक्षा
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सताया। उनके तो वे सारे प्रयोग थे। अब जब प्रयोग की बात भूल गए, तब लगा कि वे शरीर को बहुत सताते हैं। सताने की कोई बात नहीं है। ये सारी प्रयोग की बातें हैं। जो शरीर को सताने के लिए तपस्या की जाए तो ऐसी तपस्या गलत है और ऐसी तपस्या होनी ही नहीं चाहिए। केवल प्रयोग होना चाहिए। आयुर्वेद का विकास है कि सप्ताह में एक उपवास अवश्य होना चाहिए। आज हम उपवास के महत्त्व को भूल गए किन्तु पश्चिम के लोगों ने उपवास-चिकित्सा का प्रयोग कर रखा है, न जाने कितने वर्षों से चल रहा है। उपवास-चिकित्सा की पश्चिम में जितनी अच्छी पुस्तकें निकली हैं शायद भारत में नहीं निकली। उपवास प्रयोग है, अगर प्रयोग की दृष्टि से किया जाए।
सहिष्णुता के विकास के लिए कोई साधक सूर्य के आतप का प्रयोग करे तो कब, कितना और किस आसन में करना चाहिए ? यह एक प्रश्न है। प्रारम्भ करने वाले के लिए प्रात:काल सूर्योदय से लेकर एक घण्टे तक यह प्रयोग किया जा सकता है। कायोत्सर्ग की मुद्रा (लेटे-लेटे) या पद्मासन की मुद्रा लाभप्रद होती है। प्रारम्भ में आतप का सेवन दस-पन्द्रह मिनट तक किया जाए और फिर धीरे-धीरे उसे बढ़ाकर एक घण्टा तक खींचा जा सकता
है।
धार्मिक की कसौटी
धार्मिक की पहली कसौटी है सहिष्णुता, परिस्थिति को सहने की क्षमता। वह कभी नहीं कहता कि मेरे पर दु:ख न आए। जो यह मांग करता है, वह कर्त्तव्य की हत्या करता है। क्या प्रकृति का नियम बदल जाए ? क्या कर्म का नियम बदल जाए ? धार्मिक कभी सत्य को उलटना नहीं चाहता।
दुनिया का नाम है द्वन्द्व । संस्कृत में द्वन्द्व शब्द के दो अर्थ होरे हैं- 'दो' और 'लड़ाई'। दो का होना ही लड़ाई है। इस द्वन्द्वात्मक सृष्टि में जन्म ले और सोचे-दु:ख, प्रतिकूल परिस्थिति और कठिनाई न आए, यह कैसे हो सकता है ? ऐसा सोचना निरी मुर्खता है। . . धार्मिक में भी कठिनाई आए तो धर्म करने का लाभ क्या है ? यह प्रश्न हो सकता है। इसका उत्तर बहुत साफ है। धर्म से दुःख को सहने की शक्ति आती है। धार्मिक कष्ट में रोता, विलपता नहीं, अपितु आनन्द से उसे झेल लेता है। रोग, बुढ़ापा और मौत धर्म करने वालों को भी आती है और न करने वालों को भी आती है। दोनों में फर्क यह पड़ता है कि अधार्मिक इस स्थिति में बिलखता है, हाय-हाय करता है, पड़ोसी को भी जगा देता है।
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