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अमूर्त चिन्तन
है। सोचने में जरा संकट भी पैदा होता है कि यह विरोधाभास क्यों चल रहा. है। एक ओर वैचारिक धरातल पर, तार्किक धरातल पर, बौद्धिक धरातल पर बहुत प्रगति की है मनुष्य ने और जहां आन्तरिक पक्ष का, भावना पक्ष का प्रश्न था उस पक्ष में काफी प्रतिगति हुई है। उल्टा चला है। हम इस बात पर निश्चित विश्वास करें कि प्रामाणिकता के बिना कोई भी समाज प्रगति-पथ पर नहीं बढ़ सकता। प्रामाणिकता का अर्थ
प्रामाणिकता एक ऐसा तत्त्व है जो अर्थनीति, राजनीति और धर्मनीति-तीनों को मान्य है। कौटिलीय अर्थशास्त्र में महामात्य चाणक्य ने कहा है-'राज्य कर्मचारी को रिश्वत नहीं लेनी चाहिए।' यद्यपि उन्होंने इस प्रवृत्ति को दु:संभव बताते हुए यह लिखा है कि जिस प्रकार मछली जल में बहती हुई जल पीती है तब पता नहीं चलता है कि वह पानी कैसे पीती है, इसी प्रकार राज्य-कर्मचारी के रिश्वत लेने की प्रक्रिया गम्य नहीं होती। इसी तथ्य पर और अधिक बल देते हुए उन्होंने आगे लिखा है-'पानी में रहने वाली मछली तथा गगन विहारी पक्षी की गतिविधि को समझा जा सकता है। किन्तु राज्य-कर्मचारी रिश्वत लेता है, उसे गम्य करना तो बहुत कठिन है।'
प्रामाणिकता का अर्थ है-किसी को धोखा नहीं देना। अर्थशास्त्र की प्रामाणिकता का उद्देश्य है-व्यवसाय का विकास । एक व्यापारी अपने ग्राहकों के प्रति प्रामाणिक रहता है तो उसका विश्वास बढ़ता है, ग्राहक उसके पास प्रसन्नता से आते हैं। व्यावसायिक क्षेत्र में उसकी इज्जत बढ़ती है और व्यवसाय सम्बन्धी अनेक कठिनाइयां स्वयं निरस्त होती जाती हैं।
राजनीति की प्रामाणिकता जनता और अधिकारियों के बीच पनपने वाली विश्वासघात की प्रवृत्ति को नियंत्रित करती है। उनके पारस्परिक सम्बन्ध मधुर रहते हैं। प्रजा सुखी रहती है और सरकार निश्चित ।
धर्मशास्त्रीय प्रामाणिकता आत्म-पतन की दिशाओं को बन्द करती है। इससे अशुद्ध विचारों का शोधन होता है। मन और व्यवहार के धरातल पर पवित्रता का अनुभव होता है तथा उससे सुख और आनन्द की उपलब्धि होती है, जो अप्रामाणिकता से कभी प्राप्त नहीं है। अप्रामाणिकता का उत्स
जिस दिन मनुष्य में अनधिकृत वस्तु को प्राप्त करने की आकांक्षा उत्पन्न हुई, उसी दिन उसमें अप्रामाणिकता का बीज अंकुरित हो गया।
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