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अमूर्त चिन्तन
पहले की घटना है-एक साहूकार मकान बनवा रहा था। उसकी नींव खुद रही थी। मजदूरों ने आश्चर्य के साथ देखा कि नींव की खुदाई में कोई चीज चमक रही है। उन्होंने थोड़ी खुदाई और की तथा साफ-साफ देखा कि एक बड़े पात्र में स्वर्ण-मुद्राएं भरी पड़ी हैं। वे तत्काल दौड़े और मुख्य चेजारे (गृह-शिल्पी) के पास पहुंचे। स्वर्ण-मुद्रा के पात्र की बात उसे बतलाई। उसने गृहस्वामी से कहा और गृहस्वामी ने राजा से। मजदूर चाहते तो उस पात्र को हड़प लेते और चेजारा चाहता तो दोनों मिलकर हड़प लेते। सेठ चाहता तो तीनों मिलकर बांट लेते। राजा तक बात पहुंचती ही नहीं। राजा चाहता तो अकेला ही उस पर अधिकार कर लेता और किसी को कुछ नहीं देता। किन्तु मजदूरों ने कहा-'इस पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। इस पर गृह-शिल्पी का अधिकार हो सकता है।' गृह-शिल्पी ने कहा-'इस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। यह भूमि मकान मालिक की है। इस पर उसी का अधिकार हो सकता है।' गृह-स्वामी ने कहा-'भूमि से निकली हुई चीज पर राजा का अधिकार हो सकता है।' राजा ने भी उस पर अपना अधिकार नहीं स्वीकार किया, क्योंकि उसकी खुदाई बहुत गहरी नहीं थी और वह व्यक्तिगत भूमि थी। फलत: कोई भी उसे लेने को तैयार नहीं हुआ।
प्रामाणिकता के आचरण का यह कितना बड़ा उदाहरण है। जिस पर मेरा अधिकार नहीं, उसे मैं नहीं ले सकता', यह कहकर स्वर्ण-मुद्राओं को ठुकराने वाले मजदूर, गृह-शिल्पी, साहूकार और राजा इसी भारत की मिट्टी में उत्पन्न हुए थे। आज इसी नैतिक चेतना की प्रतिष्ठा हो, यह अपेक्षित है। इस अपेक्षा की पूर्ति करके ही भारत की नैतिक चेतना विश्व के लिए आदर्श बन सकती है।
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