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अमूर्त्त चिन्तन
विवाद का रास्ता खोल दिया। आज यह स्थिति पैदा हो गई है कि आदमी सत्य को जाने न जाने, उसके लिए विवाद करने को तैयार है ।
नहीं बोलने का एक बहुत बड़ा मूल्य है, सत्य की सुरक्षा । नहीं बोलने से सत्य की पूरी सुरक्षा होती है । अवक्तव्य, अनिर्वचनीय, अव्याकृत- ये शब्द सत्य की सुरक्षा करते हैं। एक कहता है- अस्ति अर्थात् है । दूसरा कहता है - नास्ति अर्थात् नहीं है । दोनों की दो दिशाएं हैं । विवाद की स्थिति आ जाती है । महावीर ने कहा- जो कहता है अस्ति, वह भी सही नहीं है और जो कहता है नास्ति, वह भी सही नहीं है। दोनों सही तब हो सकते हैं जब दोनों अपने-अपने कथन के साथ अपेक्षा जोड़ देते हैं और कहते हैं कि इस दृष्टि से, इस अपेक्षा से यह है और इस अपेक्षा से यह नहीं है - स्यादस्ति, स्यान्नास्ति । जब स्यादस्ति कहने से भी काम नहीं चलता और स्यान्नास्ति कहने से भी काम नहीं चलता तब स्याद् अवक्तव्य कहना होता है । यह मानकर चलों कि सत्य कहा नहीं जा सकता, संपूर्ण सत्य कहा नहीं जा सकता । सत्य की प्रकृति ही ऐसी ही है, सत्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह कहा नहीं जा सकता। हम जो कहते हैं वह सत्य का एक अंशमात्र होता है । हम अंशमात्र का कथन करके पूरे सत्य के प्रति शायद अन्याय ही करते हैं, एक दृष्टि से । इस बात को मानकर ही तुम कहो कि पूरा सत्य कहा नहीं जा सकता । यह गूंगे का गुड़ है। यह स्वाद का वर्णन नहीं कर सकता ।
मैं समझता हूं कि न बोलना, मौन रहना, सत्य की सुरक्षा का सशक्त और प्रबल साधन है ।
सत्य क्या है ?
दृष्टि और प्रतिपादन दो प्रकार के होते हैं - यथार्थ और अयथार्थ । जो तथ्य जिस रूप में है उसे उसी रूप में देखना और प्रतिपादन करना यथार्थ है और तथ्य के विपरीत दर्शन और प्रतिपादन अयथार्थ हो जाता है। सत्य का अर्थ है - यथार्थ का दर्शन और प्रतिपादन ।
यथार्थ का दर्शन यह दृष्टिकोण का सत्य है या सत्य का दृष्टिकोण है । यथार्थ का प्रतिपादन वाणी का सत्य है । सत्य का महाव्रत चरित्र का पक्ष है, व्यवहार का पक्ष है । सत्य का महाव्रती दूसरे को वही बात कहता है, जो यथार्थ होती है और यथार्थ ही अहिंसा धर्म के अनुकूल होती है ।
सत्य का ऋजुता के साथ गहरा सम्बन्ध है । जो व्यक्ति ऋजु नहीं होता वह सत्य का प्रतिपालन नहीं कर सकता। इस संदर्भ में सत्य का संदर्भ केवल वाणी से नहीं होता किन्तु अपना अभिप्राय जताने की हर चेष्टा से हो
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