________________
१३०
अमूर्त चिन्तन
वे ही उसका उपयोग करेंगे, जो नहीं खोजेंगे वे उसका उपयोग नहीं कर पाएंगे।
अध्यात्म के क्षेत्र में जो खोजें हुई हैं, अतीन्द्रि ज्ञानियों ने जो खोजें की . हैं, जो देखा है, पाया है, जो अनुभव किया है, उसको उन्होंने दूसरों को बतलाया। दूसरों ने सुना। लाभ उठाया। पर पूरा लाभ नहीं मिला।
उस अभिव्यक्ति के माध्यम से जो सत्य की अनुभूति होनी चाहिए थी, वह किसी को नहीं हुई। वचन के माध्यम से प्राप्त वह सत्य श्रुति के काम आया, सुनने के काम आया तथा मस्तिष्क और बुद्धि के काम आया किन्तु वह अनुभूतिगम्य नहीं बना। वह अनुभूतिगम्य तब बना जब सुनने वालों ने स्वयं खोज प्रारम्भ की, स्वयं उसको उपलब्ध हुए। उससे पहले कुछ भी नहीं हुआ। सुनना व्यर्थ नहीं गया। उससे खोज की पृष्ठभूमि तैयार हुई। वह पृष्ठभूमि तब तक पृष्ठभूमि ही बनी रहती है जब तक उसको आधार बनाकर साधक आगे बढ़ नहीं सकता। साधक जब तक अनुभव के स्तर पर उस सत्य को नहीं पा लेता तब तक वह यह नहीं कह सकता-'यह सचाई है। इसका मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया।' वह तब तक दूसरों को दुहाई देता रहता है। यह उधारी बात है। वह यकीन करता है-यह आगमों की सचाई, गीता या बाईबिल की सचाई है। गुरु ग्रन्थसाहब या कुरान की सचाई, पिटक या अन्य धार्मिक शास्त्र की सचाई है। वह कभी नहीं कह सकता कि यह मेरी सचाई है। यह मेरा भोगा हुआ सत्य है। जब व्यक्ति उस सत्य को उपलब्ध हो जाता है, उसे साक्षात् कर लेता है, तभी वह कह सकता है-'यह मेरा सत्य है। मैंने इसे जाना-देखा है। मैंने इसे भोगा है।'
अध्यात्म का क्षेत्र वैज्ञानिक है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें सबको वैज्ञानिक होना पड़ता है। जो भी इस यात्रा-रथ पर चलना चाहता है, उसे वैज्ञानिक बनना ही पड़ता है। ऐसा नहीं होता कि आचार्य तुलसी वैज्ञानिक बन जाएं, सत्य की खोज करें और शेष सारे उनके अनुयायी बनकर उस खोजे हए सत्य का उपयोग करते रहें। ऐसा नहीं हो सकता। प्रत्येक साधक को वैज्ञानिक बनना होता है, परीक्षण करना होता है और सत्य को ढूंढ निकालना होता है।
___'सत्य को खोजो'- इतना ही पर्याप्त नहीं है। भगवान महावीर ने इसके पीछे 'अप्पणा' शब्द लगाकर इस ओर संकेत किया कि 'सत्य को खोजो'-यह अधूरी बात है। स्वयं सत्य को खोजो-यह पूरी बात है। यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण संकेत है। यह संकेत साधक के पुरुषार्थ की गाथा है।
दूसरा प्रश्न है कि हमने सत्य की खोज प्रारम्भ की है, किन्तु हमारे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org