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अमूर्त चिन्तन
समाधान के लिए होते हैं वे स्वयं समस्या बन जाते हैं।
यदि सत्य के निकट पहुंच जाएं तो विरोधी हितों में सामंजस्य हो सकता है। यदि आज समाज में नये मूल्यों का सामंजस्य किया जा सके तो समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। आचार्य तुलसी सामंजस्य की बात करते हैं। सबसे पहले सत्य और अध्यात्म की बात करते हैं।
मनुष्य में यदि सत्य की जिज्ञासा और निष्ठा नहीं है तो वह अच्छा भी नहीं बन सकता। प्रगति और विकास का द्वार बन्द ही रहेगा। इसलिये सबसे पहले सत्य को पहचानें और फिर उसे स्वीकार करें। मन के आवरणों को हटाकर मैला, कूड़ा-कर्कट निकालकर स्वच्छता स्वीकार करें और दृष्टि लाभ कर ज्ञान को परिष्कृत करें। ज्ञान, दर्शन और चरित्र की समन्विति तभी होगी जब हम दृष्टि साफ रखेंगे। इसके लिए सत्य की प्रबल जिज्ञासा होनी चाहिए। आन्तरिक तड़प और जिज्ञासा के बिना मनुष्य जहां का तहां रहेगा। सत्य की मीमांसा
__सत्य क्या है ? यह प्रश्न अनादि काल से चर्चित रहा है। जो ध्रुव है, जो स्थिर है वह सत्य है, पर वही सत्य नहीं है। परिवर्तन प्रत्यक्ष है। उसे असत्य नहीं कहा जा सकता। जो परिवर्तन है, वह सत्य है पर वही सत्य नहीं है। स्थिति के बिना परिवर्तन होता ही नहीं। जो दृश्य है वह सत्य है, पर वह भी सत्य है जो दृश्य नहीं है। सत्य के अनेक रूप हैं। एकरूप अनेकरूपता का अंश रहकर ही सत्य है। उनसे निरपेक्ष होकर वह सत्य नहीं है। सत्य किसी धर्म प्रवर्तक द्वारा कृत नहीं है। वह सहज है अकृत है। वह धर्म प्रवर्तक के द्वारा अज्ञात से ज्ञात और अनुद्घाटित से उद्घाटित होता है। भगवान् महावीर ने कहा-'सत्य वही है, जो वीतराग के द्वारा प्ररूपित है। सत्य एक ओर अविभाज्य है। जो सत् है, जिसका अस्तित्व है वह सत्य है। यह परम अभेददृष्टि है। इस जगत् में चेतन का भी अस्तित्व है और अचेतन का भी अस्तित्व है। इसलिए चेतन भी सत्य है और अचेतन भी सत्य है। मनुष्य चेतन है, स्वयं सत्य है, फिर भी उसका चेतन से सीधा सम्पर्क नहीं है और इसलिए नहीं है कि राग एवं द्वेष उसका सत्य से सीधा सम्पर्क होने में बाधा डाले हुए हैं। राग-रंजित मनुष्य आसक्ति की दृष्टि से देखता है, इसलिए सत्य उसके सामने अनावृत नहीं होता। द्वेष-रंजित मनुष्य घृणा की दृष्टि से देखता है, इसलिए सत्य उससे भय खाता है। सत्य उसी के सामने अनावृत होता है, जो तटस्थ दृष्टि से देखता है। तटस्थ दृष्टि से वही देख सकता है, जिसके नेत्र आसक्ति और घृणा से रंजित नहीं होते।
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