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सत्य अनुप्रेक्षा
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उसकी खोज कैसे करें ?'
'कर्म को छोड़ दो। मन को विकल्पों से मत भरो, मौन रहो, शरीर को स्थिर रखो।' __ 'भते ! फिर जीवन कैसे चलेगा ?'
‘संयत कर्म करो। बोलना आवश्यक ही हो तो संयम से बोलो। चलना आवश्यक ही हो तो संयम से चलो। खाना आवश्यक ही हो तो संयम से खाओ। सब कुछ संयम से करो।'
भंते ! सत्य की खोज का मार्ग बताया जा सकता है, तब सत्य क्यों नहीं बताया जा सकता।'
ये सत्यांश हैं। सत्यांश बताया जा सकता है। मैं सत्य का सापेक्ष प्रतिपादन करता हूं। पूर्ण सत्य नहीं बताया जा सकता। इसीलिए मैं कहता हूं कि सत्य नहीं कहा जा सकता। सत्यांश बताया जा सकता है, इसलिए मैं कहता हूं कि सत्य कहा जा सकता है। सत्य अवक्तव्य और वक्तव्य है। इन दोनों का सापेक्ष बोध ही सम्यग् ज्ञान है।' वक्तव्य सत्य
'भंते ! वक्तव्य सत्य क्या है ?'
'अभेद की दृष्टि से अस्तित्व (होना मात्र) सत्य है और भेद की दृष्टि से द्रव्य और पर्याय सत्य है। द्रव्य शाश्वत है। पर्याय अशाश्वत है। शाश्वत और अशाश्वत का समन्वय ही सत्य है। जब हम विश्व को ज्ञेय की दृष्टि से देखते हैं तब चेतन और अचेतन द्रव्य के त्रैकालिक अस्तित्व और परिवर्तन का समन्वय सत्य और उनका विभाजन असत्य है। जब हम विश्व को हेय और उपादेय की दृष्टि से देखते हैं तब श्रेय सत्य है और प्रेय असत्य है।'
हमारी मांग तो अनन्त को जानने की है, संपूर्ण सत्य को जानने की है, अखंड सत्य को जानने की है। वह हमारी मांग पूरी नहीं होती। हमें जानने को मिलता है थोड़ा-सा अंश, अनन्त का एक खंड। हम उसको पकड़ कर, उस खंड को लेकर, अखंड के लिए लड़ने लग जाते हैं। यह लड़ाई कभी समाप्त नहीं होती। अच्छा तो यह होता कि कोई आदमी बोलता ही नहीं। कम से कम सत्य के बारे में कभी जबान नहीं खोलता, केवल व्यवहार की संपूर्ति के लिए बोलता तो लड़ाइयां नहीं होतीं। सत्य के विषय में न बोलना ही असत्य से बचने का अच्छा उपाय है। किन्तु ऐसा हो नहीं सका। उन ज्ञानी पुरुषों ने भी अनुकंपा की, दया की कि अज्ञानी लोग पूरा न जान सकें तो कम-से-कम थोड़ा बहुत जान लें। यह अनुकम्पा भारी पड़ गयी। इसने
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