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स्वावलम्बन की अनुप्रेक्षा
के सहारे खड़ी होती है। बड़ी अजीब प्रकृति है । जिसके सहारे खड़ी होती है उसे खाना शुरू कर देती है। कहा जाता है कि अमरबेल एक किलोमीटर तक अपना पैर फैला देती है। वह दूसरों पर फैलती है और दूसरों को समाप्त करती चली जाती है। परावलम्बन का सबसे अच्छा उदाहरण है-अमरबेल । आदमी भी कम परावलंबी नहीं है, अमरबेल से कम खतरनाक नहीं है। वह भी दूसरों के कंधों पर अपना वैभव, अपना ऐश्वर्य चलाता है और उनको चट करता चला जाता है ।
आज व्यक्ति इतना परावलंबी हो गया कि उसने स्वावलंबन को बिलकुल भुला डाला है। लगता तो यह है, यदि दूसरा काम करने वाला मिलता हो तो शायद कुछ लोग तो हाथ हिलाना भी पसन्द नहीं करेंगे। मुंह में कौर डालना भी नहीं चाहेंगे । चाह रहे हैं कि ऐसी मशीन का निर्माण हो जो कोरी रसोई ही नहीं पकाए, मुंह में कौर भी दे। फिर ऐसी मशीन की खोज भी करनी होगी जो पचा भी दे । पचाने की भी फिर क्या जरूरत है ? इतनी सुविधावादी मनोवृत्ति बन जाती है कि आदमी हर बात के लिए दूसरों का मुंह ताकता रहता है । इससे एक बहुत बड़ा अनर्थ हुआ है कि आदमी श्रम करना भूल गया ।
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प्रश्न होता है स्वावलम्बन और पुरुषार्थ में क्या अन्तर है ? पुरुषार्थ हमारे शरीर की प्रक्रिया है । अंगों को काम में लेना और नियोजित करना, यानी शक्ति का उपयोग करना है पुरुषार्थ, और अपनी शक्ति पर भरोसा करना है स्वावलंबन | पहले स्वावलंबन होता है । स्वावलंबन होता है तो पुरुषार्थ होता है। अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं है तो फिर स्वावलंबन की बात नहीं आती। जिसे अपने पैरों पर भरोसा नहीं है, उसे लाठी लेनी पड़ती है या फिर वैशाखी के सहारे चलना पड़ता है। अपनी शक्ति पर भरोसा होना पहली बात है । यह स्वावलंबन का दृष्टिकोण है और अपनी शक्ति का उपयोग करना, काम में लाना, पुरुषार्थ है ।
जब तक पूरा श्रम शरीर को नहीं मिलता, रोग समाप्त नहीं होते, हमारे रक्त की प्रणालियां स्पष्ट नहीं होती. स्वास्थ्य उपलब्ध नहीं होता । सचमुच शरीर को श्रम चाहिए । श्रम बहुत आवश्यक है । कोई श्रम न कर सके तो योगासन का आलंबन ले सकता है। योगासन के द्वारा शरीर को भी स्वास्थ्य मिलता है। श्रम हमारे जीवन के लिए बहुत आवश्यक है ।
स्वतंत्रता, स्वावलंबन और पुरुषार्थ पर विश्वास - ये व्यक्ति की तीन वैयक्तिकताएं हैं। व्यक्ति की तीन सीमाएं हैं, जो व्यक्ति को अलग व्यक्तित्व प्रदान करती हैं 1
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