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स्वावलम्बन की अनुप्रेक्षा
ध्यान एक परमपुरुषार्थ है, यह दृष्टि जब तक स्पष्ट नहीं हो जाती है, व्यक्ति, समाज या राष्ट्र का कल्याण नहीं हो सकता। दृष्टि की स्पष्टता किसी भी कार्य की सफलता का वह बिंदु है, जिसे नजर अन्दाज कर कोई भी व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सकता। ध्यान से शक्ति का अर्जन होता है और उस अर्जित शक्ति से व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
कुछ लोग ध्यान को निष्क्रियता का प्रतीक मानते हैं। उनकी दृष्टि में ध्यान का प्रयोग वे व्यक्ति करते हैं, जिसके पास कोई दूसरा महत्त्वपूर्ण काम नहीं होता। पर मैं इस मान्यता से सहमत नहीं हूं। मेरे अभिमत से यह चिंतन उन लोगों का हो सकता है जो ध्यान की विधि से परिचित नहीं हैं
और उस प्रक्रिया से गुजरे नहीं हैं। जो ध्यान अकर्मण्यता को निष्पन्न करता है, मैं उसे ध्यान मानने के लिए भी तैयार नहीं हूं। ध्यान की शक्ति इतनी विस्फोटक होती है कि वह मानव चेतना में छिपी हुई अनेक विशिष्ट शक्तियों का जागरण कर मनुष्य को कहां से कहां पहुंचा देती है। __मैं चाहता हूं कि हमारे साधक निराश या भय से मुक्त हों और प्रलोभन के प्रवाह में न बहें। भय और प्रलोभन से चित्त विक्षिप्त होता है। इसलिए सही पथ दर्शन में सही गुर सीखकर उसका अभ्यास करना चाहिए। . इस क्रम से अपना ही नहीं समूची मानवता का भला हो सकता है।
पुरुषार्थ हर व्यक्ति के हाथ की बात है, पर ध्यान का पुरुषार्थ कोई-कोई ही कर सकता है। इसीलिए हर व्यक्ति को इसके लिए प्रयत्नशील रहने की अपेक्षा है। ध्यान का पुरुषार्थ करने वाले व्यक्तियों को दो बातों पर ध्यान देना जरूरी है। पहली बात यह है कि ध्यान के साधक में किसी प्रकार का भय न हो और दूसरी बात है-उनमें किसी प्रकार का प्रलोभन न हो। स्वावलम्बन और पुरुषार्थ
हमारे वैयक्तिक जीवन की दूसरी फलश्रुति है-स्वावलंबन । स्वावलंबन कहां है ? इतना परावलम्बन होता है कि आदमी दूसरे पर निर्भर होता चला जाता है। आपने अमरबेल का नाम सुना होगा। नाम तो बहुत सुन्दर, पर बड़ी खतरनाक बेल होती है। जिस पौधे पर चढ़ जाती है उसका तो अंत ही समझिये। अपने पैरों पर खड़ी नहीं होती। दूसरे का आलंबन ढूंढती है, दूसरों
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