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स्वावलम्बन की अनुप्रेक्षा
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पहुंचाए। पर यह बहुत स्पष्ट हो जाना चाहिए कि श्रम या स्वावलंबन का कोई अतिरिक्त मूल्य नहीं है। यह जीवन का स्वाभाविक मूल्य है। इसे अतिरिक्त मूल्य दिए जाने की स्थिति में यह जीवन में प्रतिष्ठित नहीं होता, बल्कि जीवन पर समारोपित होता है। स्व-निर्भरता
एक राजकुमार दीक्षित हो रहा था। माता-पिता ने कहा-'कुमार ! तुम बड़े सुकुमार हो बहुत कोमल हो, तुम दीक्षित हो रहे हो। तुम्हें ज्ञात नहीं है, शरीर में बीमारी पैदा हो जाएगी, हो सकती है, तो चिकित्सा नहीं करा सकोगे। अचिकित्स्य है यह संयम का मार्ग । बीमारी पैदा होने पर क्या करोगे? कौन आहार, पानी लाकर देगा ? भूखे-प्यासे और रुग्ण होकर बैठे रहोगे। क्या प्राप्त होगा ?'
राजकुमार बोला-'माता-पिता ! जंगल में रहने वाले पशु बीमार हो जाते हैं। कौन उनकी परिचर्या करता है ? कौन उन्हें भोजन-पानी लाकर देता है? रुग्ण पड़े रहते हैं। जब स्वस्थ होते हैं तब जंगल में जाकर खा-पी लेते हैं। जब ये पशु भी ऐसा कर सकते हैं तो मैं मनुष्य हूं, ऐसा क्यों नहीं कर सकूँगा ?'
यह एक महत्त्वपूर्ण खोज थी स्वावलंबन और स्व-निर्भरता की। रोग की स्थिति में भी दूसरे का सहारा न लिया जाए। यदि रोग का प्रतिकार करना हो तो बाहरी वस्तु से न किया जाए।
अमेरिका में एक संस्थान ऐसा है जिसका सदस्य दवा का भी प्रयोग नहीं करते । वे कोई दवा नहीं लेते। ऑपरेशन की आवश्यकता होने पर भी ऑपरेशन नहीं कराते। सदस्य थोड़े हैं पर जो हैं, वे कट्टरता से इनका पालन करते हैं । सब कुछ वे ईश्वर पर छोड़ देते हैं।
तेगिच्छं नाभिमदेज्जा'-जैन मुनि चिकित्सा की इच्छा न करे । यह बहुत प्राचीन सिद्धांत है। जैन आगमों में यह उल्लेख स्थान-स्थान पर मिलता है। यह कैसे संभव हो सकता है कि बीमारी हो और चिकित्सा न हो ? चिकित्सा हो सकती है पर वह बाहरी वस्तु से न हो, यह इस सूत्र का हार्द है। स्वावलम्बन और स्व-निर्भर होकर अपनी वस्तु से चिकित्सा करो, बाह्य वस्तु से चिकित्सा मत करो, पर-वस्तु से चिकित्सा मत करो।
___ शरीर में रोग पैदा होता है तो शरीर में नीरोगता की भी पूरी व्यवस्था है। आसनों का विकास इस दिशा में हुआ था। चिकित्सा के लिए बाहरी वस्तुओं की अपेक्षा नहीं है। आसनों का प्रयोग करो, चिकित्सा हो जाएगी। श्वास और विभिन्न मुद्राओं का प्रयोग रोग निवारण की दिशा में हुआ था। इसमें नाड़ी-विज्ञान का पुरा उपयोग किया गया था।
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