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अलंकारचिन्तामणि
मनोरम, व्यंग्यादि अर्थोंसे सम्पन्न, दोषोंसे रहित, गुणोंसे सहित होना चाहिए । काव्य के प्रयोजनमें ग्रन्थकारने दो बातों पर विशेष बल दिया है; एक तो उसे उभय लोकोपकारी होना चाहिए अर्थात् उससे ऐहिक आनन्द ही नहीं, आमुष्मिक श्रेय भी प्राप्त होना चाहिए, दूसरे, पुण्य और धर्मके अर्जनका उसे समर्थ साधन भी होना चाहिए ।
शब्दार्थालंकृतीद्धं नवरसकलितं रीतिभावाभिरामं व्यंग्याद्यर्थं विदोषं गुणगणकलितं नेतृसद्वर्णनाढ्यम् । लोकद्वन्द्वोपकारि स्फुटमिह तनुतात् काव्यमग्र्यं सुखार्थी नानाशास्त्रप्रवीणः कविरतुलमतिः पुण्यधर्मोरुहेतुम् ||१७||
अलंकारचिन्तामणि में पांच परिच्छेद हैं । प्रथम परिच्छेद में मुख्यतः 'कविसमय' का संग्रह है, द्वितीय परिच्छेद में चित्रालंकारका तथा तृतीय परिच्छेद में यमकका प्रपंच है; चतुर्थ परिच्छेद में अर्थालंकारों का विवरण है। पंचम परिच्छेदमें रस, रीति, शब्दार्थ, शब्दव्यापार, दोष, गुण, नायक-नायिका आदिका निरूपण है । एक पंचम परिच्छेद में ही इतने विषयोंके समावेशका कोई यौक्तिक आधार नहीं दीखता । ग्रन्थकी विशेषता किसी उल्लेख्य मौलिक उद्भावनायें नहीं, बल्कि विषय प्रतिपादनकी प्रांजलता और उदाहरणोंकी श्लीलता में है ।
प्रस्तुत ग्रन्थके सम्पादनमें शास्त्री जीने जो श्रम किया है वह तो श्लाघ्य है ही, पूरे ग्रन्थका हिन्दी अनुवाद देकर उन्होंने इसका महत्त्व अनेकगुण बढ़ा दिया है । अनुवाद प्रामाणिक तथा स्पष्ट है, साथ ही शास्त्रीजीके आधिकारिक ज्ञानका अनवद्य निदर्शन है । निश्चय ही इस ग्रन्थसे अलंकारशास्त्र के मर्मज्ञ मुदित एवं तृप्त होंगे ।
पटना ६-१२-१२
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देवेन्द्रनाथ शर्मा आचार्य तथा अध्यक्ष, हिन्दी - विभाग, पटना विश्वविद्यालय
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