Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२ - परीषहविभक्ति सूत्र - ४९
आयुष्मन् ! भगवान् ने कहा है-श्रमण जीवन में बाईस परीषह होते हैं, जो कश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा प्रवेदित हैं, जिन्हें सुनकर, जानकर, परिचित कर, पराजित कर, भिक्षाचर्या के लिए पर्यटन करता हुआ मुनि, परीषहों से स्पृष्ट-होने पर विचलित नहीं होता ।
वे बाईस परीषह कौन से हैं ? वे बाईस परीषह इस प्रकार हैं-क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, अचेल, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृण-स्पर्श, जल्ल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और दर्शन परीषह । सूत्र-५०
कश्यप-गोत्रीय भगवान् महावीर ने परीषहों के जो भेद बताए हैं, उन्हें मैं तुम्हें कहता हूँ । मुझसे तुम अनुक्रम से सुनो। सूत्र-५१-५२
बहुत भूख लगने पर भी मनोबल से युक्त तपस्वी भिक्षु फल आदि का न स्वयं छेदन करे, न कराए, उन्हें न स्वयं पकाए और न पकवाए।
लंबी भूख के कारण काकजंघा के समान शरीर दुर्बल हो जाए, कृश हो जाए, धमनियाँ स्पष्ट नजर आने लगें, तो भी अशन एवं पानरूप आहार की मात्रा को जानने वाला भिक्षु अदीनभाव से विचरण करे। सूत्र -५३-५४
__ असंयम से अरुचि रखनेवाला, लज्जावान् संयमी भिक्षु प्यास से पीड़ित होने पर भी सचित जल का सेवन न करे, किन्तु अचित जल की खोज करे । यातायात से शून्य एकांत निर्जन मार्गों में भी तीव्र प्यास से आतुर-होने पर, मुँह के सूख जाने पर भी मुनि अदीनभाव से प्यास को सहन करे। सूत्र - ५५-५६
विरक्त और अनासक्त होकर विचरण करते हुए मुनि को शीतकाल में शीत का कष्ट होता ही है, फिर भी आत्मजयी जिनशासन को समझकर स्वाध्यायादि के प्राप्त काल का उल्लंघन न करे ।
शीत लगने पर मुनि ऐसा न सोचे कि मेरे पास शीत-निवारण के योग्य साधन नहीं है। शरीर को ठण्ड से बचाने के लिए छवित्राण-वस्त्र भी नहीं हैं, तो मैं क्यों न अग्नि का सेवन कर लूँ | सूत्र-५७-५८
गरम भूमि, शिला एवं लू आदि के परिताप से, प्यास की दाह से, ग्रीष्मकालीन सूर्य के परिताप से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी मुनि सात के लिए आकुलता न करे । स्नान को इच्छा न करे । जल से शरीर को सिंचित न करे, पंखे आदि से हवा न करे। सूत्र-५९-६०
महामुनि डांस तथा मच्छरों का उपद्रव होने पर भी समभाव रखे । जैसे युद्ध के मोर्चे पर हाथी बाणों की परवाह न करता हुआ शत्रुओं का हनन करता है, वैसे मुनि परीषहों की परवाह न करते हुए राग-द्वेष रूपी अन्तरंग शत्रुओं का हनन करे । दंशमशक परीषह का विजेता साधक दंश-मशकों से संत्रस्त न हो, उन्हें हटाए नहीं । उनके प्रति मन में भी द्वेष न लाए । मांस काटने तथा रक्त पीने पर भी उपेक्षा भाव रखे, उनको मारे नहीं। सूत्र-६१-६२
'वस्त्रों के अति जीर्ण हो जाने से अब मैं अचेलक हो जाऊंगा । अथवा नए वस्त्र मिलने पर मैं फिर सचेलक हो जाऊंगा''-मुनि ऐसा न सोचे । विभिन्न एवं विशिष्ट परिस्थितियों के कारण मुनि कभी अचेलक होता
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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