Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar View full book textPage 8
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक संयमी मुनि प्रासुक और परकृत आहार ले, किन्तु बहुत ऊंचे या नीचे स्थान से लाया हुआ तथा अति समीप या अति दूर से दिया जाता हुआ आहार न ले। सूत्र - ३५ संयमी मुनि प्राणी और बीजों से रहित, ऊपर से ढके हुए और दीवार आदि से संवृत्त मकान में अपने सहधर्मी साधुओं के साथ भूमि पर न गिराता हुआ विवेकपूर्वक आहार करे । सूत्र - ३६ आहार करते समय मुनि, भोज्य पदार्थों के सम्बन्ध में-अच्छा किया है, अच्छा पकाया है, अच्छा काटा है, अच्छा हुआ है, अच्छा प्रासुक हो गया है, अथवा घृतादि अच्छा भरा है-अच्छा रस उत्पन्न हो गया है, बहुत ही सुन्दर है-इस प्रकार के सावद्य-वचनों का प्रयोग न करे। सूत्र - ३७ __ मेधावी शिष्य को शिक्षा देते हुए आचार्य वैसे ही प्रसन्न होते हैं, जैसे कि वाहक अच्छे घोड़े को हाँकता हुआ प्रसन्न रहता है । अबोध शिष्य को शिक्षा देते हुए गुरु वैसे ही खिन्न होता है, जैसे कि दुष्ट घोड़े को हांकता हुआ उसका वाहक ! सूत्र - ३८, ३९ गुरु के कल्याणकारी अनुशासन को पापदृष्टिवाला शिष्य ठोकर और चांटा मारने, गाली देने और प्रहार करने के समान कष्टकारक समझता है। 'गुरु मुझे पुत्र, भाई और स्वजन की तरह आत्मीय समझकर शिक्षा देते हैं -ऐसा सोचकर विनीत शिष्य उनके अनुशासन को कल्याणकारी मानता है । परन्तु पापदृष्टिवाला कुशिष्य हितानुशासन से शासित होने पर अपने को दास समान समझता है। सूत्र-४० शिष्य न तो आचार्य को कुपित करे और न कठोर अनुशासनादि से स्वयं कुपित हो । आचार्य का उपघात करनेवाला न हो और न गुरु का छिद्रान्वेषी हो। सूत्र - ४१ अपने किसी अभद्र व्यवहार से आचार्य को अप्रसन्न हआ जाने तो विनीत शिष्य प्रीतिवचनों से प्रसन्न करे । हाथ जोड़ कर शान्त करे और कहे कि 'मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा।'' सूत्र - ४२ जो व्यवहार धर्म से अर्जित है, और प्रबुद्ध आचार्यों के द्वारा आचरित है, उस व्यवहार को आचरण में लाने वाला मुनि कभी निन्दित नहीं होता है। सूत्र - ४३ शिष्य आचार्य के मनोगत और वाणीगत भावों को जान कर उन्हें सर्वप्रथम वाणी से ग्रहण करे और फिर कार्य में परिणत करे। सूत्र-४४ विनयी शिष्य गुरु द्वारा प्रेरित न किए जाने पर भी कार्य करने के लिए सदा प्रस्तुत रहता है । प्रेरणा होने पर तत्काल यथोपदिष्ट कार्य अच्छी तरह सम्पन्न करता है। सूत्र-४५ विनय के स्वरूप को जानकर जो मेधावी शिष्य विनम्र हो जाता है, उसकी लोक में कीर्ति होती है । प्राणियों के लिए पृथ्वी के आधार समान योग्य शिष्य समय पर धर्माचरण करनेवालों का आधार बनता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 8Page Navigation
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