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पश्चात् वे निर्जीव बन जाते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में महाव्रतों का निरूपण है। महाव्रत के पांच प्रकार हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। इनमें मुख्य अहिंसा है, शेष उसी के विस्तार हैं। मन, वाणी और शरीर से क्रोध, लोभ, मोह और भय आदि से दूषित मनोवृत्तियों के द्वारा किसी भी प्राणी को शारीरिक या मानसिक किसी भी प्रकार की हानि पहुंचाना हिंसा है। इस प्रकार हिंसा से बचना अहिंसा है। हिंसा और अहिंसा की आधारभूमि मुख्य रूप से भावना है। यदि मन में हिंसक भावना चल रही है पर बाहर से हिंसा न भी हो तो भी वह हिंसा ही है। यदि मन पावन है, उसमें विवेक का आलोक जगमगा रहा है और यदि बाहर हिंसा होती हुई दिखलाई देती है तो भी वह अहिंसा ही है। स्नेह, करुणा और कल्याण की मंगलमय भावना से गुरु कदाचित् शिष्य की कठोर शब्दों के द्वारा भर्त्सना करता है, दोष लगने पर उसे प्रायश्चित्त और दण्ड देता है, तो भी वह हिंसा नहीं है। जैन श्रमण का जीवन पूर्ण अहिंसक है। वह अहिंसा का देवता है। उसके समस्त जीवन-व्यापारों में अहिंसा, करुणा, दया का अमृत व्याप्त रहता है। उसकी अहिंसा व्रत नहीं महाव्रत है, महान् प्रण है। उक्त महाव्रत के लिए प्रस्तुत अध्ययन में 'सव्वाओ पाणावायाओ वेरमणं' वाक्य का प्रयोग हुआ है। जिसका अर्थ है मन, वचन और कर्म से न हिंसा स्वयं करना, न दूसरों से करवाना और न हिंसा करने वालों का अनुमोदन करना ।
द्वितीय महाव्रत सत्य है । मन, वाणी और कर्म से यथार्थ चिन्तन करना, आचरण करना और बोलना सत्य है। जिस वाणी से अन्य प्राणियों का हनन होता हो, दूसरों के हृदय में पीड़ा उत्पन्न हो, यह सत्य नहीं है। जैन श्रमण अत्यन्त मितभाषी होता है। उसकी वाणी में अहिंसा की स्वरलहरियां झनझनाती हैं। उसकी वाणी में स्व और पर के कल्याण की भावना अठखेलियां करती हैं। जैने श्रमण के लिए हंसी और मजाक में भी झूठ बोलने का निषेध है। वह प्राणों पर संकट आने पर भी सत्य से विमुख नहीं होता। इस प्रकार उसके सत्य महाव्रत के लिए 'सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं' वाक्य का प्रयोग हुआ है।
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तृतीय महाव्रत अचौर्य है। अचौर्य अहिंसा और सत्य का ही एक रूप है। किसी भी वस्तु को बिना अनुमति के ग्रहण करना चोरी है। यहां तक कि दांत कुरेदने के लिए तिनका भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। अचौर्यव्रत की रक्षा के लिए श्रमणों को जो भी वस्तु ग्रहण करनी हो, उसके लिए आज्ञा लेने का विधान है। इस महाव्रत के लिए 'सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं' वाक्य का प्रयोग है।
चतुर्थ महाव्रत ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य एक आध्यात्मिक शक्ति है। शारीरिक, मानसिक, सामाजिक प्रभृति सभी पवित्र आचरण ब्रह्मचर्य पर ही निर्भर हैं। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए काम के वेग को रोकना आवश्यक है। ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल उपस्थ-इन्द्रिय-संयम ही नहीं है परन्तु सर्वेन्द्रिय-संयम है। जो पूर्ण जितेन्द्रिय होता है वही साधक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है। ब्रह्मचारी साधक ब्रह्मचर्य को नष्ट करने वाले पदार्थों का सेवन नहीं करता। कामोद्दीपक दृश्यों को निहारता नहीं है और न इस प्रकार की वार्ताओं को सुनता है। न मन में कुविचार ही लाता है। वह पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करता है, इसलिए 'सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं' का प्रयोग हुआ है।
पांचवें महाव्रत का नाम अपरिग्रह है । धन, सम्पत्ति भोगसामग्री आदि पदार्थों का ममत्वमूलक संग्रह परिग्रह है। वर्तमान युग में समाज की दयनीय स्थिति चल रही है। उसके अन्तस्तल में आवश्यकता से अधिक संग्रह का भयंकर विष भरा हुआ है। एक के पास सैकड़ों विशाल भवन हैं तो दूसरे के पास छोटी सी झोंपड़ी भी नहीं है। एक के पास अन्न के अम्बार लगे हुए हैं तो दूसरा व्यक्ति अन्न के एक-एक दाने के लिए तरस रहा है। एक के पास
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