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छेदसुत्ताणि
सूत्र २४
प्र०-से कि तं भार-पच्चोरहणया ? उ०—भार-पच्चोरहणया चउन्विहा पण्णत्ता। तं जहा१ असंगहिय-परिजण-संगहिता भवइ, २ सेहं आयार-गोयर-संगहित्ता भवइ, ३ साहम्मियस्स गिलायमाणस्स अहाथामं वेयावच्चे अब्भुद्वित्ता भवइ, ४ साहम्मियाणं अहिगरणंसि उप्पण्णंसि तत्थ अणिस्सितोवस्सिए'
अपक्खग्गहिय-मज्झत्य-भावभूए सम्मं ववहरमाणे . तस्स अधिगरणस्स खमावणाए विउसमणताए सया समियं अन्भुट्टित्ता भवइ, कहं णु साहम्मिया अप्पसद्दा, अप्पझंज्या, अप्पकलहा, अप्पकसाया, अप्पतुमंतुमा, संजमबहुला, संवरबहुला, समाहिबहुला, अप्पमत्ता, संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणा-एवं च णं विहरेज्जा।
से तं भार-पच्चोरहणया। प्रश्न-भगवन् ! भारप्रत्यारोहणताविनय क्या है ? उत्तर-भारप्रत्यारोहणताविनय चार प्रकार का कहा गया है । जैसे - १ असंगृहीत-परिजन-संग्रहीता होना (निराश्रित शिष्यों का संग्रह
करना)। २ नवीन दीक्षित शिष्यों को आचार और गोचरी की विधि सिखाना। ३ साधर्मिक रोगी साधुओं की यथाशक्ति वैयावृत्य के लिए अभ्युद्यत
रहना। ४ सार्मिकों में परस्पर अधिकरण (कलह-क्लेश) उत्पन्न हो जाने पर
रागद्वप का परित्याग करते हुए, किसी पक्ष-विशेष को ग्रहण न करके मध्यस्थ भाव रखे और सम्यक् व्यवहार का पालन करते हुए उस
कलह के क्षमापन और उपशमन के लिए सदा ही अभ्युद्यत रहे । प्रश्न-भगवन् ! ऐसा क्यों करें? . उत्तर-क्योंकि ऐसा करने से सार्मिक अनर्गल प्रलाप नहीं करेंगे, झंझा
(झंझट) नहीं होगी, कलह, कषाय और तू-तू-मैं-मैं नहीं होगी । तथा सार्मिक जन संयम-बहुल, संवर-वहुल, समाधिवहुल
१ टि० ० प्रती-'अणिस्सितोवस्सिए वसित्ता' इति पाठः ।
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