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छेदसुतागि दूवादि अधिक समय रखने पर उपभोग के अयोग्य हो जाते हैं और घृत जादि विक समय रखने पर भी उपभोग के योग्य रहते हैं अतः दूध बादि संचय के अयोग्य विकृतियाँ हैं और घृत आदि संचय के योग्य विकृतियां हैं।
वाल, वृद्ध, ग्लान एवं तपस्वी मुनियों के लिए दोनों प्रकार की विकृतियों को परिमित मात्रा में लेने का विधान है।
वलवान् तरूप मुनियों के लिए दुन्यादि सभी विकृतियां लेने का सर्वथा निषेध है।
(-नितीह नाष्य, गाया १५६५) अपवाद में भी वृष्ण पर वसा (चर्बी) नादि विकृतियों के लेप का निषेध
(-निसीह० उद्देशक ३, सूत्र २८) मांस, मद्य और वसा का जाहार करने वाला नरकगामी होता है ।
(-उत्त० ब० १६ गाया ७०-७१) वर्षावात रहे हुए हष्ट-पुष्ट निरोग और बलवान् देह वाले निर्धन्य और नित्यियों को नो रस विकृतियों का बार-बार बाहार करना नहीं कल्पता है। यया-.दूध, २. दही, ३. मकतन, ४. घृत, ५. तल, ६. गुड़, ७. मधु, ८.मध और ह.मांस ।
प्राचीन व्याख्याकारों के समान यदि बर्थ संगति के लिये विशेष प्रयल न किया जाय तो इस सूत्र का व्याच्यार्य इतना ही है।
त्रिकरण लौर त्रियोग ते अहिता महानत की बारापना करने वाले निम्रन्य और निर्गन्दिया मद्य-मांत के सर्वथा त्यागी होते हैं, इसलिए अपवाद में भी वे मद्य-मांस का उपयोग नहीं कर सकते हैं, अतः ऐसे भ्रामक सूत्र को स्थान देना सर्वथा अनुचित है।
ग्लान-परिचर्या-रूपा षष्ठी समाचारी सूत्र १७ ___ वातावासं पज्जोसवियाणं अत्यगइयाणं एवं वृत्तपुव्वं भवइ-अट्ठो भंते ! गिलाणस.
ते य वइज्जा-अट्ठो. ते च पुच्छियत्वे-केवइएणं बढो? से य वएज्जा-एवइएणं अट्रो गिलाणस, . जं से पमाणं वयइ, से य पमाणमो चित्तब्वे । ते य विनवेज्जा, से य विनवेमाणे लज्जा ,
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