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छेदसुत्ताणि उद्यान में) ठहरे हैं, (अभी) यहाँ विद्यमान हैं-यावत्...आत्म-साधना करते हुए समाधिपूर्वक विराजित हैं ।
हे देवानुप्रियो ! श्रेणिक राजा को यह संवाद सुनाएँ (और उन्हें कहें कि) आपके लिए यह संवाद प्रिय हो" इस प्रकार एक दूसरे ने ये वचन सुने । वहाँ से वे राजगृह नगर में आए। नगर के मध्य भाग में होते हुए जहाँ श्रोणिक राजा का राजप्रासाद था और जहाँ श्रोणिक राजा था वहाँ वे आये । श्रोणिक राजा को हाथ जोड़कर......यावत्......जय विजय बोलते हुए वधाया । और इस प्रकार कहा :
__"हे स्वामिन् ! जिनके दर्शनों की आप इच्छा करते हैं......यावत्... ...विराजित हैं इसलिए हे देवानुप्रिय ! यह प्रिय संवाद आपसे निवेदन कर रहे हैं । यह संवाद आपके लिये प्रिय हो । सूत्र ११
तए णं से सेणिए राया तेसि पुरिसाणं अंतिए एयमझें सोच्चा निसम्म हतुट जाव-हियए सीहासणाओ अमुळेइ,
अन्भुद्वित्ता वंदति नमसह वंदित्ता नमंसित्ता ते पुरिसे सक्कारेइ सम्माणे:
सक्कारित्ता सम्माणित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइ, दलइत्ता पडिविसज्जेति । पडिविसज्जित्ता नगरगुत्तियं सदावेइ ।
सद्दावेत्ता एवं वयासी
"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! रायगिह नगरं सब्भितर-बाहिरियं आसियसंमज्जियोवलितं (करेह)"
जावकरित्ता पच्चप्पिणंति ।
उस समय श्रोणिक राजा उन पुरुषों से यह संवाद सुनकर एवं अवधारण कर हृदय में हर्षित-संतुष्ट हुआ......यावत्......सिंहासन से उठा । श्रमण भगवान महावीर को वंदना नमस्कार किया । और उन्हें प्रीति पूर्वक आजीविका योग्य विपुल दान देकर विसर्जित किया। बाद में नगररक्षक को बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! राजगृह नगर को अन्दर और बाहर से परिमाजित कर जल से सिञ्चित करो.......यावत्......मुझे सूचित करो। सूत्र १२ तए णं से सेणिए राया बलवाउयं सद्दावेइ । सद्दावेत्ता एवं वयासी"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हय-गय-रह-जोह कलियं चाउरंगिणि से णं सण्णाहेह ।" जाव-से वि पच्चप्पिणइ ।