Book Title: Agam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 192
________________ १७६ छेदसुत्ताणि तहेव जावसंति उड्ढं देवा देवलोयंसि, ते णं तत्थ णो अर्गासि देवाणं अण्णं देवि अभिमुंजिय परियारेति, अप्पणो चेव अप्पाणं विउम्वित्ता परियारेति, अप्पाणिज्जिया वि देवीए अभिमुंजिय अभिमुंजिय परियारेति जइ इमस्स तव-नियम-तं चेव सव्वं जाव-से णं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा ? णो तिणळे समठे। अण्णत्थरूई रूइ-मायाए से य भवति । से जे इमे आरणिया, आवसहिया, गामंतिया, कण्हुइ रहेस्सिया। जो बहु-संजया, णो बहु-पडिविरया सम्व-पाण-भूय-जीव-सत्तेसु, अप्पणो सच्चामोसाइं एवं विपडिवदंति"अहं ण हंतव्वो, अण्णे हंतव्वा, अहं ण अज्जावेयन्वो, अण्णे अज्जावेयव्वा, अहं ण परियावयम्वो, अण्णे परियावेयन्वा, अहं ण परिघेतन्यो, अण्णे परिघेतन्वा, अहं ण उवद्दवेयव्वो, अण्णे उववेयव्वा ।" एवामेव इथिकामेहि मुच्छिया गढिया गिद्धा अज्झोववपणा। जाव-कालमासे कालं किच्चा अण्णयराई असुराई किस्विसयाइं ठाणाई उववत्तारो भवंति । ततो विमुच्चमाणा भुज्जो एल-मूयत्ताए पच्चायति । एवं खलु समणाउसो ! तस्स णिदाणस्स जावणो संचाएति केवलि-पण्णत्तं धम्मं सद्दहित्तए वा, पत्तिइत्तए वा, रोइत्तए वा। छठा निदान हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है (आगे का वर्णन पूर्व (पृष्ठ) के समान) उदिप्त कामवासना के शमन के लिए तप-संयम की साधना का प्रयत्न करते हुए मानव सम्बन्धी काम-भोगों से उन्हें (निग्नन्थ-निर्गन्थियों को) विरक्ति हो जाय । उस समय वे ऐसा सोचें कि "मानव सम्बन्धी कामभोग अध्रुव हैं, अनित्य है (पूर्व पृष्ठ के समान) यावत्...ऊपर की और देवलोक में देव हैं । वे वहां अन्य देव-देवियों के साथ अनंग क्रीड़ा नहीं करते हैं..."किन्तु

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