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आयारदसा
सूत्र ४६
एवं खलु समणाउसो ! तस्स नियाणस्सइमेयारूवे पाप-फल-विवागेजंणो संचाएति तेणेव भवग्गहणणं सिज्झज्जा जाव-सव्वदुक्खाणमंतं करेज्जा ।
हे आयुष्मान् श्रमणो! उस निदान शल्य का पापरूप विपाक-फल यह है कि वह उस भव से सिद्ध बुद्ध नहीं होता....यावत्....सब दुखों का अन्त नहीं कर पाता।
णियाण-रहिय तवोवहाणफलं
सूत्र ५०
एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्तेइणमेव निग्गंथ-पावयणे जाव-से य परक्कमेज्जा
सव्यकाम-विरत्ते, सवरागविरत्ते, सव्वसंगातीते, सन्वहा सन्व-सिणेहातिक्फते, सव्व-चरित्त परिखुड्ढे ।।
तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं णाणेणं, अणुत्तरेणं ईसणेणं, अणुत्तरेणं परिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावमाणस्स अणंते, अणुत्तरे, निवाघाए, निरावरणे, कसिणे, पडिपुण्णे, केवल-वरनाण-दसणे समुपज्जेज्जा।
निदान-रहित तपश्चर्या का फल हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है। यह निग्रन्थ प्रवचन सत्य है....यावत्....तप-संयम की उग्र साधना करते समय काम, राग, संग-स्नेह से सर्वथा विरक्त हो जाये और ज्ञानदर्शन चारित्र रूप निर्वाण मार्ग की उत्कृष्ट आराधना करे तो उसे अनन्त, सर्व प्रधान, बाधा एवं आवरण रहित, संपूर्ण, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न होता है।
सूत्र ५१
तए णं से भगवं अरहा भवतिजिणे, केवली, सव्वण्णू, सव्वदंसी, .