Book Title: Agam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 196
________________ १५० छेवसुत्ताणि जाव-पुमत्ताए पच्चायंति, तत्थ णं समणोवासए भविस्सामिअभिगय-जीवाजीवे उवलद्धपुण्ण-पावे जावफासुय-एसणिज्जं असणं पाणं खाइमं साइमं जावपडिलामेमाणे विहिरस्सामि । से तं साहू। अष्टम निदान हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है । (आगे का वर्णन पहले के समान-देखिये पृष्ठ १६०)....यावत्...उद्दीप्त कामवासना के शमन के लिए प्रयत्न करते हुए दिव्य और मानुषिक कामभोगों से विरक्ति हो जाने पर वह यों सोचता है। मानुषिक कामभोग अध्रव हैं""यावत् पृष्ठ १७३ त्याज्य हैं। दिव्य काममोग भी अधूव है-अनित्य है, यशास्वत है, चलाचल स्वभाव वाले हैं, जन्ममरण बढ़ाने वाले हैं। आगे-पीछे अवश्य त्याज्य हैं। यदि इस तप-नियम एवं ब्रह्मचर्य-पालन का फल हो तो मैं भी भविष्य में विशुद्ध मातृ-पितृ पक्ष वाले उग्रवंशी या भोगवंशी कुल में पुरुष रूप में उत्पन्न होऊँ और वहां मैं श्रमणोपासक बनू। ___ जीवाजीव के स्वरूप को जान, पुण्य-पाप के स्वरूप को पहचानं, ....यावत्....प्रासुक एषणीय अशन पान खाद्य स्वाध का तप-संयम के मूर्त रूप श्रमण ब्राह्मण को दान देऊ। सूत्र ४३ एवं खलु समणाउसो ! निग्गंयो वा निग्गंथी वा णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइए जाव-देवलोएसु देवताए उववज्जति जावकि ते आसगस्स सदति ?" इस प्रकार हे आयुष्मान् श्रमणो! निनन्थ-निर्गन्थी निदान करके उस निदान शल्य की आलोचना प्रतिक्रमण (यावत्...पृष्ठ १६२) दोषानुसार प्रायश्चित्त किये बिना जीवन के अन्तिम क्षणों में देवलोक में देव होता है...यावत्... पृष्ठ १६३ आपके मुख को कौनसा पदार्थ स्वादिष्ट लगता है ?

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