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आयारदसा
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पंचमं णियाणं
सूत्र ३५
एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णतेइणमेव जिग्गंथे-पावयणे जाव-तहेव। .जस्स णं धम्मस्स निग्गंथो वा निगंथी वा सिक्खाए उवहिए विहरमाणे पुर दिगिछाए जावउदिण्ण-काम-भोगे विहरेज्जा। से य परक्कमेज्जा, से य परक्कममाणे माणुस्सेहि कामभोगेहिं निव्वेयं गच्छेज्जा"माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा, अणितिया, असासया, सडण-पडण-विद्धसणधम्मा, उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाणग-वंत-पित्त-सुक्क-सोणिय-समुभवा, दुरुव-उस्सास-निस्सासा, दुरंत-मुत्त-पुरीस-पुण्णा, वंतासवा, पित्तासवा, खेलासवा, पच्छापुरं च णं अवस्सं विप्पजहणिज्जा।" संति उड्ढं देवा देवलोयंति, ते णं तत्य अस देवाणं देवीओ अभिमुंजिय अभिमुंजिय परियारेति, अप्पणो चेच अप्पाणं विउव्विय विउन्विय परियारति, अप्पणिज्जियामो देवीमो अभिमुंजिय अभिमुंजिय परियारति । जइ इमस्स तव-नियमस्स जाव-तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव
"वयमवि आगमेस्साए इमाई एयारवाई दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरामो।" से तं साहू।
पंचम निदान हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है । यही निन्थ प्रवचन सत्य है। ...यावत्...पहले के समान कहना चाहिए।
यदि कोई निम्रन्थ या निर्गन्थी केलिप्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए उपस्थित हो और क्षुधा आदि परिषह सहते हुए भी उन्हें काम-वासना का प्रबल उदय हो जाए।