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तीसे णं अतिजायमाणीए वा, निज्जायमाणीए वा, पुरतो महं दासी दास जाव- किं भे आसगस्स सदति ?
आयारदसा
जं पासित्ता निग्गंथो णिदाणं करेति
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"जह इमस्स सुचरियस तव-नियम- बंभचेर जाव - भुंजमाणी विहरामि ; सेतं साहुणी ।"
द्वितीय निदान
हे आयुष्मती श्रमणियो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है । यथा -- यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है... यावत्... सब दुःखों का अन्त करते हैं ।
यदि कोई निथ केवलि प्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए उपस्थित हो और भूख-प्यास आदि परिषह सहते हुए भी कदाचित् उसे कामवासना का प्रबल उदय हो जावे तो वह तप-संयम की उग्र साधना द्वारा उस कामवासना के शमन के लिए प्रयत्न करती है ।
उस समय वह निर्ग्रन्थी एक ऐसी स्त्री को देखती है जो अपने पति की केवल एकमात्र प्राण - प्रिया है । वह एक सरीखे ( स्वर्ण के या रत्नों के) आमरण एवं वस्त्र पहने हुई है तथा तेल की कुप्पी, वस्त्रों की पेटी एवं रत्नों के करंडिये के समान वह संरक्षणीय है, और संग्रहणीय है ।
निर्ग्रन्यी उसे अपने प्रासाद में आते-जाते देखती है । उसके आगे अनेक दास-दासियों का वृन्द चलता है... यावत्... आपके मुख को कौन-से पदार्थ स्वादिष्ट लगते हैं ?
उसे देखकर निर्ग्रन्थी निदान करती है ।
यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे तप, नियम एवं ब्रह्मचर्य पालन का फल हो तो मैं भी उस पूर्व वर्णित स्त्री जैसे मानुषिक काम भोग भोगती हुई अपना जीवन बिताऊँ ।
सूत्र २७
एवं खलु समणाउसो ! निग्रंथी णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइआ अप्पक्कता भणदिया अगरिहिया अविउट्टिया अविसोहिया अकरणाए अणन्मुट्ठिया अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं अपडिवज्जित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोएस देवित्ताए उववत्तारी भवइ महड्डियासु जाव- सा णं तत्य देवो भवति जाव - भुंजमाणी विहरति । सा ताओ देवलोगाओ
आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चत्ताजे इमे भवंति उग्गपुत्ता महामाउया' ।
१ महासाज्या |