Book Title: Agam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 179
________________ आयारदसा १६३ से णं तत्य देवे भवइ महड्डिए जाव-चिरहितिए तो देवलोगाओ, आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्सएणं, अणंतरं चयं चइत्ता, जे इमे उग्गपुत्ता महा-माउया', भोगपुत्ता महा-माउया, तेसि णं भन्नयरंसि फुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाति । से णं तत्य दारए भवइ, सुकुमाल-पाणि-पाए जाव-सुरुवे । । तए णं से वारए उम्मुक्क-बालभावे, विण्णाणपरिणयमितें, जोवणगमणुप्पत्ते, सयमेव पेइयं वायं पडिवज्जति । तस्स णं अतिजायमाणस्स वा पुरओ जावमहं दासी-दास जाव-फि ते आसगस्स सवति ? हे आयुष्मान् श्रमणो ! वह निग्रन्थ निदान करके उस निदान शल्य (पाप) सम्बन्धी संकल्पों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना जीवन के अन्तिम क्षणों में देह छोड़कर किसी एक देवलोक में महान ऋद्धि वाले यावत् उत्कृष्ट स्थिति वाले देव के रूप में उत्पन्न होता है। आयु, भव और स्थिति के क्षय से वह उस देवलोक से च्यव (दिव्य देह छोड़ कर शुद्ध मातृ-पितृ पक्ष वाले उन कुल या मोग कुल में पुत्र रूप में उत्पन्न होता है। ___ वहां वह वालक सकुमार हाथ-पैर वाला....यावत्...सुन्दर रूप वाला होता है। बाल्यकाल बीतने पर तथा विज्ञान की वृद्धि होने पर वह यौवन को प्राप्त होता है । उस समय वह स्वयं पैतृक सम्पत्ति को प्राप्त होता है। प्रासाद से आते-जाते समय उसके आगे-आगे उत्तम अश्व चलते हैं... यावत्...दास-दासियों के वृन्द से वह घिरा रहता है...यावत्...आपको कौन से पदार्थ प्रिय हैं ? सूत्र २४ तस्स गं तहप्पगारस्स पुरिसजायस्स तहारूवे समणे वा माहणे वा उभो कालं फेवलि-पण्णतं घम्भमाइलेज्जा ? हंता ! आइक्खज्जा! १ साज्या।

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