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जो भिक्षु अब तक किए गये कृत्य अकृत्यों का परित्याग कर उन उन संयम स्थानों का सेवन करे जिनसे वह आचारवान् वने | ॥३६॥
आयारदसा
जो भिक्षु पंचाचार के पालन से सुरक्षित है, शुद्धात्मा है और अनुत्तर धर्म में स्थित है, वह जिस प्रकार आशिविष सर्प विष का वमन कर देता है उसी प्रकार पूर्वकृत दोषों का परित्याग कर देता है | ||३७||
जो धर्मार्थी भिक्षु शुद्धात्मा होकर अपने कर्तव्य का ज्ञाता होता है उसकी इहलोक में कीर्ति होती है और परलोक में वह सुगति को प्राप्त होता है | |३८||
जो दृढ़ पराक्रमी, शूरवीर भिक्षु सभी मोह स्थानों का ज्ञाता होकर उनसे मुक्त हो जाता है वह जन्म-मरण का अतिक्रमण कर देता है - अर्थात् मुक्त हो जाता है।
मैं ऐसा कहता हूँ
मोहनीय स्थान नामक नवमी दशा समाप्त ।