Book Title: Agam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 160
________________ १४४ छेवसुताणि तेईसवां मोहनीय स्थान जो बहुश्रुत नहीं होते हुए भी अपने आपको बहुश्रुत, स्वाध्यायी और शास्त्रों के रहस्य का ज्ञाता कहता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है । ॥२७॥ चौवीसवां मोहनीय स्थान तपस्वी नहीं होते हए जो अपने आपको बड़ा तपस्वी कहता है वह इस विश्व में सबमें बड़ा चोर है अतः महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ॥२७॥ पच्चीसवां मोहनीय स्थान जो समर्थ होते हुए भी ग्लान सेवा का महान् कार्य नहीं करता है अपितु "मेरी इसने सेवा नहीं की है अतः मैं भी इसकी सेवा क्यों करू" इस प्रकार कहता है वह महामूर्ख मायावी एवं मिथ्यात्वी कलुषित चित्त होकर अपनी आत्मा का अहित करता है तथा महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है । ॥२६॥ छब्बीसवां मोहनीय स्थान___ चतुर्विध संघ में मतभेद पैदा करने के लिए जो कलह के अनेक प्रसङ्ग उपस्थित करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है । ॥३०॥ सत्ताईसवाँ मोहनीय स्थान किसी पुरुष या स्त्री को वश में करने के लिए जो जीवहिंसा करके वशीकरण प्रयोग करता है वह महामोहनीय कर्म का वध करता है । ॥३१॥ अट्ठाईसवां मोहनीय स्थान प्राप्त भोगों से अतृप्त व्यक्ति जो मानुषिक और देवी भोगों की बार-बार अभिलाषा करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है । ॥३२॥ उन्तीसवां मोहनीय स्थान___जो ऋद्धि, यति, यश, वर्ण और बल-वीर्य वाले देवताओं के अवर्णवाद (निन्दा) करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है । ॥३३॥ तीसवाँ मोहनीय स्थान____ जो अज्ञानी जिन देव की पूजा के समान अपनी पूजा का इच्छुक होकर देव, यक्ष और असुरों को नहीं देखता हुआ भी कहता है कि "मैं इन सबको देखता हूँ" तो वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है । ॥३४॥ ये तीस स्थान सर्वोत्कृष्ट अशुभ कर्म फल देने वाले कहे गये हैं, मलिन चित्त करने वाले हैं-अतः भिक्षु इनका आचरण न करे और आत्म-गवेषी होकर विचरे । ॥३॥

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