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छेदसुत्ताणि
देवकुलाणि य, सभाओ य पवाओ य पणियगिहाणि य, पणियसालाओ य उहा-कम्मंताणि य, वणियकम्मंताणि य कटुकम्मंताणि य, इंगालकम्मंताणि य वणकम्मंताणि य, दन्भकम्मंताणि य जे तत्थेव' महत्तरगा आणत्ता चिट्ठति ते एवं वदह
छत्र पर कोरण्टकर पुष्पों की माला धारण करके....यावत्....शशि समप्रियदर्शी नरपति श्रेणिक जहाँ वाह्य उपस्थान शाला में सिंहासन था वहाँ आया । पूर्वाभिमुख हो, उस पर बैठा । बाद में अपने प्रमुख अधिकारियों को वुलाकर उसने इस प्रकार कहा"हे देवानुप्रियो । तुम जाओ। जो ये राजगृह नगर के बाहर आराम
उद्यान शिल्पशाला
धर्मशाला देव कुल प्रपा-(प्याऊ)
पण्य गृह-दुकान पण्यशाला-विक्री केन्द्र (मंडी) भोजन शाला,
व्यापार केन्द्र, काष्ठ शिल्प केन्द्र,
कोयला उत्पादन केन्द्र, वन विभाग,
और घास के गोदाम :इनमें जो मेरे आजाकारी अधिकारी हैं-उन्हें इस प्रकार कहो
सूत्र ६
"एवं खलु देवाणुप्पिया ! सेणिए राया भंभसारे आणवेइजदा णं समणे भगवं महावीरे, आदिगरे, तित्थयरे जाव-संपाविउकामे पुवापुचि चरेमाणे, गामाणुगाम दूइज्जमाणे, सुहं सुहेण विहरमाणे,
१ तत्थ वरणमहत्तरगा २ कोरण्टक अनेक प्रकार का होता है यह पुष्प वर्ग की वनस्पति है। इसके
पुप्प पांचों वर्ण के होते हैं। -निघण्टु सार संग्रह, पृ० १३४