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छेवसुत्ताणि
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मूत्रादि त्यागने की भूमि में मल-मूत्रादि के पात्र को ले जाकर मल-मूत्रादि का परित्याग करना चाहिए । इसी प्रकार प्रश्रवण के पात्र में प्रश्रवण करके राख आदि डालने से सम्मूर्छिम जीवों की उत्पत्ति नहीं होती है ।
लोचकर्त्तव्य प्रतिपादिका द्वाविंशतितमी समाचारी
सूत्र ७०
वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा, निग्गंथोण वा परं पज्जोसवणाओ गोलोमप्पमाणमित्तं वि केसे तं रर्याण उवाइणावित्तए ।
बाईसवीं लोच समाचारी
वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ निन्थियां पर्युपणा की अन्तिम रात्रि लांघे नहींअर्थात् पर्युषणा को अन्तिम रात्रि से पूर्व उन्हें केशलुंचन अवश्य कर लेना चाहिए | क्योंकि पर्युषणा के बाद (मस्तक, मूंछ और दाढ़ी पर ) गाय के रोम जितने केश भी रखना नहीं कल्पता है ।
विशेषार्थ – निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों की श्रमणचर्या में केशलुंचन की क्रिया भी देह अनासक्ति की द्योतक रही हैं ।
(१) इस अवसर्पिणी में भगवान् ऋषभदेव ने स्वयं चार मुष्टि केशलुंचन किया । - ( जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्ष० २ सूत्र ३६ )
(२) भगवान महावीर ने स्वयं
पंचमुष्टि केशलुंचन किया ।
- ( आचारांग श्रुत० २ भावना अध्ययन ) (३) आगामी उत्सर्पिणी में होने वाले भगवान महापद्म भी स्वयं पंच मुष्टि केशलुंचन करेंगे । - ( स्थानाङ्ग अ० ६ सूत्र ६९३ )
इस प्रकार अतीत अनागत और वर्तमान में केशलुंचन की क्रिया प्रचलित रही है ।
उपलब्ध आगम साहित्य में सर्वत्र स्वयं केशलुंचन करने का वर्णन मिलता है किन्तु किसी निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी ने किसी निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थि का केशलुंचन किया हो ऐसा वर्णन एक भी नहीं मिलता है ।
अतिमुक्त कुमार, गजसुकुमार, मेघकुमार आदि लघु वय राजकुमारों ने भी अपने केशों का लुंचन अपने हाथों से किया । - ( अन्त० वर्ग - ३, ६ । ज्ञाता० अ० १)
राजीमती आदि निर्ग्रन्थियों ने भी अपना केशलुंचन अपने हाथों से किया है । ( - उत्तराध्यन अ० २२ गा० ३०) |
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