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• छेदसुत्ताणि : इसी प्रकार ग्रामानुग्राम जाने के लिए भी उक्त आचार्यादि की आज्ञा लेकर जाना-आना कल्पता है।
सूत्र ६२
वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा अग्णयार विगई माहारितए।
नो से कप्पइ से अणापुच्छित्ता १ आयरियं वा, २ उवज्झायं वा, ३ थेरं वा, ४ पवत्तयं वा, ५ गणि वा, ६ गणहरं वा, ७ गणावच्छेययं वा, जं वा पुरओ काउं विहरइ।
कप्पइ से आपुच्छित्ता १ मायरियं वा, २ उवज्झायं वा, ३ थेरं वा, ४ पवत्तयं वा, ५ गणि वा, ६ गणहरं वा, ७ गणावच्छेययं वा, जं वा पुरमोकाउं विहरइ-"इच्छामि गं भंते ! तुम्भेहि अब्भणुण्णाए समाणे अन्नार विगई आहारित्तए ?
तं एवइयं वा, एवइखुत्तो वा? ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णरि विगई आहारित्तए। ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णरि विगई आहारित्तए । से किमाहु भंते ! आयरिमा पच्चवायं जाणंति 14/६२
वर्षावास रहा हुआ भिक्षु किसी एक विकृति का आहार करना चाहे तो आचार्य यावत् गणावच्छेदक इनमें से जिसको अगुआ मानकर वह विचर रहा हो उन्हें पूछे विना लेना नहीं कल्पता है।
किन्तु आचार्य यावत् गणावच्छेदक इनमें से जिसको अगुआ मानकर वह विचर रहा हो उन्हें पूछकर लेना ही कल्पता है।
(आज्ञा लेने के लिये भिक्षु इस प्रकार कहे)
हे भगवन् ! आपकी आना मिलने पर (शारीरिक क्षतिपूर्ति के लिए आवश्यक) किसी एक विकृति का आहार करना चाहता हूँ।
वह भी इतने परिमाण में और इतनी वार ।
यदि आचार्यादि माना दें तो किसी एक विकृति का आहार करना कल्पता है।