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आयारदसा
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अदृष्टवस्त्वयाचना - रूपा सप्तमी समाचारी
सूत्र १८
वासावासं पज्जोसवियाणं अत्यि णं थेराणं तहप्पगाराई कुलाई कडाई पत्तिभई थिज्जाई वेसासियाइं संमयाइं बहुमयाई अणुमयाइं भवंति ।
तत्य से नो कप्पर अदक्खु वइत्तए अत्थि ते आउसो ! इमं वा, इमं वा ? से किमाहु भंते !
सड्डी गिही गिoes at वेणियं पि कुज्जा १८/१८
सातवीं अदृष्ट वस्तु-अयाचना समाचारी
स्थविर प्रतिबोधितकुल, जो प्रीतिकर और प्रतीतिकर है, दान देने में उदार एवं विश्वस्त है ।
जिनमें साधुओं का प्रवेश सम्मत है,
साधु सम्मान को प्राप्त हैं,
साधुओं को दान देने के लिए स्वामी द्वारा अनुमति दी हुई है ।
उनमें अदृष्ट वस्तु के लिए "हे आयुष्मन् ! यह या वह अमुक वस्तु तुम्हारे यहाँ हैं ? ऐसा पूछना नहीं कल्पता है |
- हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा ?
प्रश्न
उत्तर - श्रद्धालु गृहस्वामी श्रद्धा की अधिकता से मांगी गई वस्तु घर में नहीं होने पर मूल्य देकर लायेगा या मूल्य से प्राप्त न होने पर चुराकर लाएगा ।
विशेषार्थ —— मूल्य देकर लाई गई अथवा चुराकर लाई गई वस्तु भिक्षु और मिक्षुणी के लिए अकल्प्य हैं, अतः जो वस्तु गृहस्थ के घर में दिखाई न दे वह नहीं मांगना चाहिए ।
गोचरी काल नियमन - रूपा अष्टमी समाचारी
सूत्र १६
वासावासं पज्जोसवियस्स निच्चभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पइ एगं गोअरकालं गाहावइकुलं भत्ताए वा, पाणाए वा निक्खमित्तए वा, पविसित्तए वा । नन्नत्थ आयरिय-वेयावच्चेण वा, ८ / १६
आठवीं गोचर काल नियामका समाचारी
वर्षावास रहे हुए नित्य भोजी (नित्य एक वार आहार करने का नियम रखने वाले) भिक्षु के लिए एक गोचर काल का विधान है और उसे गृहस्थों के घरों में भक्त पान के लिए एक बार निष्क्रमण - प्रवेश करना कल्पता है, केवल आचार्य की वैयावृत्य करने वाले को छोड़कर ।
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