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छेदसुत्ताणि
वर्षावास रहे हुए साधुओं में से किसी एक साधु को आचार्य इस प्रकार कहे कि
"हे भदन्त ! तुम आज स्वयं बाहार ग्रहण करो।"
ऐसा कहने पर उसे स्वयं आहार ग्रहण करना कल्पता है, किन्तु ग्लान साधु को आहार देना नहीं कल्पता है।
सूत्र १४
वातावासं पज्जोतवियाणं अत्येगइयाणं एवं वृत्तपुल्वं भवइ-दावे भंते ! पडिगाहेहि भंते ! एवं से कप्पइ दावित्तए वि, पडिगाहित्तए वि/१४॥
वर्षावास रहे हुए साधुओं में से किसी एक साधु को नाचार्य इस प्रकार कहे कि
"हे भदन्त ! नुम आज अनुक ग्लान साधु को आहार लाकर दो, और हे नदन्त ! तुम स्वयं भी उसमें से ग्रहण कर लो।"
ऐसा कहने पर उसे ग्लान सावु के लिए आहार लाकर देना और उस माहार में से स्वयं को ग्रहण करना भी कल्पता है।
सूत्र १५
वासावासं पज्जोसवियाणं अत्यंगइयाणं एवं वृत्तपुन्वं भवइ-नो दावे भंते! नो पडिगाहे भंते ! एवं ते कप्पइ नो दावित्तए, नो पडिगाहित्तए । ८/१५॥
वर्षावास में रहे हुए साधुओं में से किसी एक साधु को आचार्य इस प्रकार कहे कि
"हे भदन्त ! आज तुम अमुक ग्लान साधु को बाहार न दो और न तुम स्वयं भी माहार करो।"
ऐसा कहने पर उसे न ग्लान सावु को आहार देना कल्पता है और न स्वयं को आहार करना कल्पता है।
विकृति-परित्यागरूपा पञ्चमी समाचारी सूत्र १६
वातावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निगंयाण वा, निग्गयीण वा हट्ठाणं तुद्वाणं आरोगाणं वलिय-तरोराणं इमाओ पंच विगईओ आहारित्तए, तं जहां
१ खीरं, २ दहि, ३ लम्पि, ४ तिल्लं, ५ गुडं ।