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आयारदसा
ग्राम यावत् राजधानी के वाहिर दोनों पैरों को संकुचित कर और दोनों भुजाओं को जानु पर्यन्त लम्बी करके कायोत्सर्ग करना चाहिए।
शेष पूर्ववत् यावत् जिनाज्ञा के अनुसार पालन करने वाला होता है ।
सूत्र ३६
एग-राइयं भिक्खु-पडिमं पडिवनस्स अणगारस्स निच्चं वोसट्र-काए णं जाव अहियासेइ ।
कप्पड़ से णं अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स वा जाव रायहाणिस्स वा ईसि पन्भार-गएणं काएणं एग-पोग्गल-द्विताए दिट्ठीए अणिमिसनयणेहिं अहापणिहितेहि गहि सविदिएहि गुत्तेहि
दोवि पाए साहटु वग्धारियपाणिस्स ठाणं ठाइत्तए। तत्थ से दिव्व-माणुस्स-तिरिक्खजोणिया जाव अहियासेइ । से णं तत्य उच्चार-पासवणेणं उन्वाहिज्जा, नो से कप्पइ उच्चार-पासवणं उगिहित्तए । कप्पइ से पुन्वपडिलेहियंसि थंडिलंसिउच्चारपासवणं परिदृवित्तए । अहाविहिमेव गणं ठाइत्तए ।
शारीरिक सुषमा एवं ममत्व भाव से रहित एक रात्रि की भिक्षु-प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार...यावत्...शारीरिक क्षमता से उन्हें झेलता है।
विशेष यह है कि निर्जल अष्टम भक्त के पश्चात् भक्त-पान ग्रहण करना कल्पता है।
ग्राम यावत् राजधानी के बाहिर (उक्त-प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार को) शरीर थोड़ा-सा आगे की ओर झुकाकर, एक पुद्गल पर दृष्टि रखते हुए अनिमिष नेत्रों से और निश्चल अंगों से सर्व इन्द्रियों को गुप्त रखता हुआ दोनों पैरों को संकुचित कर एवं दोनों भुजाओं को जानुपर्यन्त लम्बी करके कायोत्सर्ग से स्थित रहना चाहिए।
सूत्र ३७
एगराइयं भिक्खु-पडिमं सम्म अणणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओ ठाणा अहियाएं, असुभाए, अपखमाए, अणिसेस्साए, अणणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा
१ दशा० ७, सूत्र २५ के समान