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सूत्र १६
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से एवं वादी एवं पन्ने एवं दिट्ठि - छंद-रागभिनिविट्ठ? या वि भवइ । से भवइ महिच्छे जाव - उत्तरगामिणेरइए सुक्कपक्खिए, आगमेस्साणं सुलभबोहिए यावि भवइ ।
से तं किरिया - वादी ।
इस प्रकार का आस्तिकवादी, आस्तिक प्रज्ञ, और आस्तिक दृष्टि (कदाचित् चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से) स्वच्छन्द रागाभिनिविष्ट यावत् ( प्रतिपक्ष के द्वारा आक्रमण किये जाने पर युद्ध आदि के अवसर पर हिंसादि क्रूर कार्य भी करता है और कदाचित् महा आरम्भ, महापरिग्रह और ) महान् इच्छाओं वाला भी होता है, और वैसी दशा में यदि नारकायु का बन्ध कर लेता है तो वह ( दक्षिण दिशावर्ती नरकों में उत्पन्न नहीं होता । किन्तु ) उत्तर दिशावर्ती नरकों में उत्पन्न होता है, वह शुक्ल पाक्षिक होता है और आगामीकाल में सुलभवोधि होता है, यावत् सुगतियों को प्राप्त करता हुआ अन्त में मोक्षगामी होता है ।
छेदसुत्ताणि
यह क्रियावादी है ।
विशेषार्थ -- जिस भव्य जीव को एक बार बोधि अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति होकर छूट भी जाय, तो भी वह अर्धपुद्गल - परावर्तन काल के भीतर अवश्य ही उसे प्राप्त कर नियम से मोक्ष प्राप्त करता है, ऐसे परीत (अल्प) संसारी जीव को शुक्ल पाक्षिक कहते हैं और जिनका भव-भ्रमण अर्धपुद्गल परावर्तन से अधिक है और जो अभव्य जीव हैं वे कृष्णपाक्षिक कहलाते हैं ।
सूत्र १७
(१) अह पढमा उवासग-पडिमा -
सत्व - धम्म - रुई यावि भवति ।
तस्स णं बहूइं सीलवय - गुणवय २ - वेरमण - पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं नो सम्मं पट्टवित्ताइं भवंति ।
सेतं पढमा उवासग-पडिमा । ( १ )
प्रथम उपासक दर्शन - प्रतिमा
क्रियावादी मनुष्य सर्वधर्मरुचिवाला होता है, अर्थात् श्रावक धर्म और मुनिधर्म में श्रद्धा रखता है । किन्तु वह अनेक शीलव्रत, गुणव्रत, प्राणातिपातादि
१ श्रा० प्रतौ राग-मति - निविट्ठे ।
२
० प्रती गुण - वेरमण ।