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छेदसुत्ताणि
सूत्र १४
से जहानामए रुक्खे सिया पन्वयग्गे जाए, मूलच्छिन्ने, अग्गे गरुए, जओ निन्न, जओ दुग्गं, जो विसमं तमओ पवडति । एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाए गन्भाओ गभं, जम्माओ जम्म, माराओ मारं, दुक्खाओ दुक्खं, दाहिण-गामि गैरइए, कण्हपक्खिए, आगमेस्साणं दुल्लगबोहिए यावि भवति । से तं अकिरिया-वाई यावि भवइ ।
जैसे पर्वत के अग्रभाग (शिखर) पर उत्पन्न वृक्ष मूल भाग के काट दिये जाने पर उपरिम भाग के भारी होने से जहाँ निम्न (नीचा) स्थान है, जहाँ दुर्गम प्रवेश है और जहाँ विषम स्थल है वहाँ गिरता है, इसी प्रकार उपर्युक्त प्रकार का मिथ्यात्वी घोर पापी पुरुष वर्ग एक गर्भ से दूसरे गर्भ में, एक जन्म से दूसरे जन्म में, एक मरण से दूसरे मरण में, और एक दुःख से दूसरे दुःख में पड़ता है। वह दक्षिण-दिशा-स्थित घोर नरकों में जाता है, वह कृष्ण पाक्षिक नारकी आगामी काल में यावत् दुर्लभबोधि वाला होता है। उक्त प्रकार का जीव अक्रियावादी है ।
किरियावाइ-वण्णणंसूत्र १५
प्र०-से कि तं किरिया-वाई यावि भवति ? उ०-किरिया-वाई, भवति । तं जहा:आहिय-वाई, आहिय-पण्णे, आहिय-दिट्ठी, सम्मा-वाई, निया-वाई, संति पर-लोगवादी, "अस्थि इहलोगे, अत्यि परलोगे, अस्थि माया, अत्थि पिया, अत्थि अरिहंता, अत्थि चक्कवट्टा, अत्यि बलदेवा, अत्थि वासुदेवा, अस्थि सुकड-दुक्कडाणं कम्माणं फल-वित्ति-विसेसे, सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णा फला भवंति, दुच्चिण्णा कम्मा दुच्चिण्णा फला भवंति, सफले कल्लाण-पावए, पच्चायति जीवा, अत्थि नेरइया-जाव-अत्थि देवा अत्थि सिद्धी ।