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आयारदसा
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मासिकी भिक्षु-प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार को-"यहां शीत अधिक है." ऐसा सोचकर छाया से घूप में तथा "यहाँ गर्मी अधिक है" ऐसा सोचकर धूप से छाया में जाना नहीं कल्पता है।
किन्तु जहाँ जैसा (शीत या उष्ण) हो वहाँ वैसे (शीत या उष्ण) को सहन करना चाहिए।
सूत्र २५
एवं खलु मासियं भिक्षु-पडिमं ।
अहासुत्तं, अहाकप्पं, महामग्गं, महातच्चं, सम्मं कारणं फासित्ता, पालिता, सोहिता, तीरित्ता, किट्टइत्ता, आराहित्ता, आणाए अणुपालिता भवइ । (१)
इस प्रकार (वह मासिकी भिक्षु-प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार) मासिकी भिक्षुप्रतिमा को सूत्र, कल्प और मार्ग के अनुसार यथातथ्य सम्यक् प्रकार काय से स्पर्श कर पालन कर (अतिचारों का) शोधन कर कीर्तन और आराधन कर जिनाज्ञा के अनुसार (विना किसी अन्तर या व्यवधान के) पालन करने वाला होता है।
एक मासिकी भिक्षु-प्रतिमा समाप्त । सूत्र २६
दो-मासियं भिक्खु-पडिमं पडिवनस्स निच्चं वोसटकाए, तं चेव जाव दो दत्तीओ। (२)
शारीरिक सुपमा एवं ममत्वभाव से रहित द्विमासिकी भिक्षु-प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार को...यावत् भक्त-पान की दो दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है और वह दो मास तक उस प्रतिमा का पालन करता है।
सूत्र २७
ति-मासियं तिण्णि दत्तीओ। (३) ।
त्रिमासिकी भिक्षु-प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार को भक्त-पान की तीन दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है और तीन मास तक वह उसका यथाविधि पालन करता है।
१ द० चूर्णी एवं खलु एसा भिक्खुपडिमा । २ दशा० ७, मूत्र ३ और ४ के समान ।