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इससे स्पष्ट है कि चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहुस्वामी के पहले भी यह "आचारप्रकल्प" या प्राचारप्रकल्प-अध्ययन विद्यमान था, जो पूर्वो में नहीं किन्तु अंगसूत्रों में था और साध्वियों को कंठस्थ रखना भी आवश्यक था । भूल जाने पर उन्हें भी प्रायश्चित्त आता था ।
अतः इस सत्र का गणधरग्रथित आचारांग के अध्ययन होने का जो-जो वर्णन सूत्रों में, उनकी व्याख्याओं में और ग्रन्थों में मिलता है, उसे ही सत्य समझना उचित है। अन्य ऐतिहासिक विकल्पों को महत्त्व देना आगमसम्मत नहीं है।
आगमों में आचारप्रकल्प
__चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहुस्वामी से पूर्व भी जिनशासन के प्रत्येक साधु-साध्वी के लिए प्राचारप्रकल्पअध्ययन को कंठस्थ धारण करना आवश्यक था, उस आचारप्रकल्प-अध्ययन का परिचय सूत्रों एवं उनकी व्याख्याओं में जो मिलता है, वह वर्तमान में उपलब्ध इस निशीथसूत्र का ही परिचायक है, यथा
(१) पंचविहे अायारपकप्पे पण्णत्ते, तं जहा-१. मासिए उग्घाइए, २. मासिए अणुग्घाइए, ३. चाउमासिए उग्घाइए, ४. चाउमासिए अणुग्घाइए, ५. आरोवणा ।
टीका-आचारस्य प्रथमांगस्य पदविभागसमाचारी लक्षणप्रकृष्टकल्पाऽभिधायकत्वात्प्रकल्प आचारप्रकल्प निशीथाध्ययनम् । स च पंचविधः, पंचविधप्रायश्चित्ताभिधायकत्वात् ।
--स्थाना.५ २. आचारः प्रथमांगः तस्य प्रकल्पो अध्ययनविशेषो, निशीथम् इति अपराभिधानस्य....
__ -समवायांग २८ ३. अष्टाविंशतिविधः प्राचारप्रकल्पः, निशीथाध्ययनम् आचारांगम, इत्यर्थः । स च एवं-(१) सत्थपरिण्णा जाव (२५) विमुत्ती (२६) उग्घाइ (२७) अणुग्घाइ (२८) आरोवणा तिविहमो निसीहं तु, इति अट्ठावीसविहो आयारपकप्पनामोत्ति ।
-राजेन्द्र कोश भा. २ पृ. ३४९ “आयारपकप्प शब्द
-प्रश्नव्याकरण सूत्र अ. १० (४) आचारः आचारांगम, प्रकल्पो-निशीथाध्ययनम, तस्येव पंचमचला। आचारेण सहित: प्रकल्पः आचारप्रकल्प, पंचविंशति अध्ययनात्मकत्वात पंचविंशति विधः प्राचारः १. उद्घातिमं २. अनुद्घातिमं ३. आरोवणा इति त्रिधा प्रकल्पोमीलने अष्टाविंशतिविधः ।
-आभि. रा. को. भाग २, पृ. ३५० आयारपकप्प शब्द यहां समवायांगसूत्र एवं प्रश्नव्याकरणसूत्र के मूल पाठ में अट्ठाईस प्रकार के प्राचार प्रकल्प का कथन किया गया है, जिसमें संपूर्ण आचारांगसूत्र के २५ अध्ययन और निशीथसत्र के तीन विभाग का समावेश करके अट्ठाईस का योग बताया है। इससे स्पष्ट है कि प्रागमों में निशीथ को आचारांगसूत्र का ही विभाग या अध्ययन बताया गया है।
निष्कर्ष यह है कि आगमिक वर्णनों को प्रमुखता देकर ऐतिहासिक उल्लेखों को गौण' किया जाय तो यह सहज समझ में आ सकता है-"निशीथ-अध्ययन" आचारांगसूत्र के एक अध्ययन का नाम था । उसमें बीस उद्देशक
१. आगम वर्णन से जो निर्णय स्पष्ट हो जाता हो, उस विषय में इतिहास या परम्परा से उलझना
वैधानिक नहीं होता है। प्रागमणित विषय के पोषक तत्त्वों से सुलझना ही उपयुक्त होता है।
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