Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक दान देने के लिए, भोगने के लिए, उपयोग करने के लिए और बँटवारा करके देने के लिए पर्याप्त था।
तत्पश्चात् उस मेघकुमार ने प्रत्येक पत्नी को एक-एक करोड़ हिरण्य दिया, एक-एक करोड़ सुवर्ण दिया, यावत् एक-एक प्रेक्षणकारिणी या प्रेषणकारिणी दी। इसके अतिरिक्त अन्य विपुल धन कनक आदि दिया, जो यावत् दान देने, भोगोपभोग करने और बँटवारा करने के लिए सात पीढ़ियों तक पर्याप्त था । तत्पश्चात् मेघकुमार श्रेष्ठ प्रासाद के ऊपर रहा हुआ, मानों मृदंगों के मुख फूट रहे हो, इस प्रकार उत्तम स्त्रियों द्वारा किये हुए, बत्तीसबद्ध नाटकों द्वारा गायन किया जाता हुआ तथा क्रीड़ा करता हुआ, मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रूप और गंध की विपुलता वाले मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगता हआ रहने लगा। सूत्र-२९
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर अनुक्रम से चलते हुए, एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हुए, सुखे-सुखे विहार करते हुए, जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील नामक चैत्य था, यावत् ठहरे । सूत्र - ३०
तत्पश्चात् राजगृह नगर में शृंगाटक-सिंघाड़े के आकार के मार्ग, तिराहे, चौराहे, चत्वर, चतुर्मुख पथ, महापथ आदि में बहुत से लोगों का शोर होने लगा । यावत् बहुतेरे उग्रकुल के, भोगकुल के तथा अन्य सभी लोग यावत् राजगृहनगर के मध्यभागमें होकर एक ही दिशामें, एक ही ओर मुख कर नीकलने लगे उस समय मेघकुमार अपने प्रासाद पर था । मानो मृदंगों का मुख फूट रहा हो, उस प्रकार गायन किये जा रहा था । यावत् मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोग रहा था और राजमार्ग का अवलोकन करता-करता विचर रहा था । तब व उग्रकुलीन भोगकुलीन यावत् सब लोगों को एक ही दिशा में मुख किये जाते देखता है । देखकर कंचुकी पुरुष को बुलाता है और बुलाकर कहता है-हे देवानुप्रिय ! क्या आज राजगृह नगर में इन्द्र-महोत्सव है ? स्कंद का महोत्सव है ? या रुद्र, शिव, वैश्रमण, नाग, यक्ष, भत, नदी, तडाग, वक्ष, चैत्य, पर्वत, उद्यान या गिरि की यात्रा है ? जिससे बहत से उग्र-कुल तथा भोग-कुल आदि के सब लोग एक ही दिशा में और एक ही ओर मुख करके नीकल रहे हैं?
तब उस कंचुकी पुरुषने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के आगमन का वृत्तान्त जानकर मेघकुमार को इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! आज राजगृह नगर में इन्द्रमहोत्सव या यावत् गिरियात्रा आदि नहीं है कि जिसके निमित्त यह सब जा रहे हैं । परन्तु देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर धर्म-तीर्थ का आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले यहाँ आए हैं, पधार चूके हैं, समवसृत हुए हैं और इसी राजगृह नगर में, गुणशील चैत्य में यथायोग्य अवग्रह की याचना करके विचर रहे हैं । मेघकुमार कंचुकी पुरुष से यह बात सुनकर एवं हृदय में धारण करके, हृष्ट -तुष्ट होता हुआ कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाता है और बुलवाकर इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटाओं वाले अश्वरथ को जोत कर उपस्थित करो । वे कौटुम्बिक पुरुष बहुत अच्छा' कहकर रथ जोत लाते हैं।
तत्पश्चात् मेघकुमार ने स्नान किया । सर्व अलंकारों से विभूषित हुआ । फिर चार घंटावाले अश्वरथ पर आरूढ़ हुआ । कोरंटवृक्ष के फूलों की मालावाला छत्र धारण किया । सुभटों के विपुल समूहवाले परिवार से घिरा हुआ, राजगृह नगर के बीचों-बीच होकर नीकला । जहाँ गुणशील नामक चैत्य था, वहाँ आया । श्रमण भगवान महावीर स्वामी के छत्र पर छत्र और पताकाओं पर पताका आदि अतिशयों को देखा तथा विद्याधरों, चारण मुनियों
और मुंभक देवों को नीचे उतरते एवं ऊपर चढ़ते देखा । यह सब देखकर चार घंटा वाले अश्वरथ से नीचे ऊतरा । पाँच प्रकार के अभिगम करके श्रमण भगवान महावीर के सन्मुख चला । वह पाँच अभिगम उस प्रकार हैं-सचित्त द्रव्यों का त्याग । अचित्त द्रव्यों का अत्याग । एक शाटिका उत्तरासंग । भगवान पर दृष्टि पड़ते ही दोनों हाथ जोड़ना | मन को एकाग्र करना । जहाँ भगवान् महावीर थे, वहाँ आया । श्रमण भगवान महावीर की दक्षिण दिशा से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की। भगवान को स्तुति रूप वन्दन किया और काय से नमस्कार किया । श्रमण भगवान महावीर के अत्यन्त समीप नहीं और अति दूर भी नहीं, ऐसे समुचित स्थान पर बैठकर धर्मोपदेश सूनने की ईच्छा करता हुआ, नमस्कार करता हुआ, दोनों हाथ जोड़े, सन्मुख रहकर विनयपूर्वक प्रभु की उपासना करने लगा।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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