Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक कहते थे-हे देवानुप्रिय ! नन्द मणिकार सेठ धन्य है, उसका जन्म और जीवन सफल है, जिसकी इस प्रकार की चौकोर यावत् मनोहर यह नन्दा पुष्करिणी है; जिसकी पूर्व दिशा में वनखण्ड है-यावत् राजगृह नगर से भी बाहर नीकलकर बहुत-से लोग आसनों पर बैठते हैं, शयनीयों पर लेटते हैं, नाटक आदि देखते हैं और कथा-वार्ता कहते हैं और सुख-पूर्वक विहार करते हैं । अत एव नन्द मणिकार का मनुष्यभव सुलब्ध-सराहनीय है और उसका जीवन तथा जन्म भी सुलब्ध है ।' उस समय राजगृह नगर में भी शृंगाटक आदि मार्गों में बहुतेरे लोग परस्पर कहते थेदेवानुप्रिय ! नन्द मणिकार धन्य है, यावत् जहाँ आकर लोग सुखपूर्वक विचरते हैं । तब नन्द मणिकार बहुत-से लोगों से यह अर्थ सूनकर हृष्ट-तुष्ट हुआ । मेघ की धारा से आहत कदम्बवृक्ष के समान उसके रोमकूप विकसित हो गए-उसकी कली-कली खिल उठी । वह साताजनित परमसुख का अनुभव करने लगा। सूत्र-१४६
कुछ समय पश्चात् एक बार नन्द मणिकार सेठ के शरीर में सोलह रोगांतक उत्पन्न हए । वे इस प्रकार थे - श्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षि-शूल, भगंदर, अर्श, अजीर्ण, नेत्रशूल, मस्तकशूल, भोजनविषयक अरुचि, नेत्रवेदना कर्णवेदना, कंडू-खाज, दकोदर और कोढ़ । सूत्र-१४७
नन्द मणिकार इन सोलह रोगांतकों से पीड़ित हुआ । तब उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहादेवानुप्रियो ! तुम जाओ और राजगृह नगर में शृंगाटक यावत् छोटे-छोटे मार्गों में ऊंची आवाज से घोषणा करते हुए कहो-'हे देवानुप्रियो ! नन्द मणिकार श्रेष्ठी के शरीरमें सोलह रोगांतक उत्पन्न हुए हैं, यथा-श्वास से कोढ़ । तो हे देवानुप्रियो ! जो कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, जानकार या जानकार का पुत्र, कुशल या कुशल का पुत्र, नन्द मणिकार के उन सोलह रोगांतकोंमें से एक भी रोगंतक को उपशान्त करना चाहे-मिटा देगा, देवानुप्रियो ! नन्द मणिकार उसे विपुल धन-सम्पत्ति प्रदान करेगा। इस प्रकार दूसरी बार, तीसरी बार घोषणा करो । घोषणा करके मेरी यह आज्ञा वापिस लौटाओ ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञानुसार राजगृह की गली-गली में घोषणा करके आज्ञा वापिस सौंपी।
राजगृह नगर में इस प्रकार की घोषणा सूनकर और हृदय में धारण करके वैद्य, वैद्यपुत्र, यावत् कुशलपुत्र हाथ में शस्त्रकोश लेकर, शिबिका, गोलियाँ और औषध तथा भेषज हाथ में लेकर अपने-अपने घरों से नीकले । राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर नन्द मणिकार के घर आए । उन्होंने नन्द मणिकार के शरीर को देखा और नन्द मणिकार से रोग उत्पन्न होने का कारण पूछा । फिर उद्वलन, उद्वर्त्तन, स्नेह पान, वमन, विरेचन, स्वेदन, अवदहन, अपस्नान, अनुवासना, वस्तिकर्म से, निरूह द्वारा, शिरोवेध से, तक्षण से, प्रक्षण से, शिरावेष्ट से, तर्पण से, पुटपाक से, पत्तों से, छालों से, वेलों से, मूलों से, कंदों से, पुष्पों से, फलों से, बीजों से, शिलिका से, गोलियों से, औषधों से, भेषजों से, उन सोलह रोगांतकों में से एक-एक रोगांतक को उन्होंने शान्त करना चाहा, परन्तु वे एक भी रोगांतक को शान्त करने में समर्थ न हो सके । बहुत-से वैद्य, वैद्यपुत्र, जानकार, जानकारों के पुत्र, कुशल और जब एक भी रोग को उपशान्त करने में समर्थ न हुए तो थक गए, खिन्न हुए, यावत् अपने-अपने घर लौट गए । नन्द मणिकार उस सोलह रोगांतकों से अभिभूत हुआ और नन्दा पुष्करिणी में अतीव मूर्छित हुआ । इस कारण उसने तिर्यंचयोनि सम्बन्धी आयु का बन्ध किया, प्रदेशों का बन्ध किया । आर्तध्यान के वशीभूत होकर मृत्यु के समय में काल करके उसी नन्दा पुष्करिणी में एक मेंढकी की कुंख में मेंढ़क के रूप में उत्पन्न हुआ।
तत्पश्चात् नन्द मण्डूक गर्भ से बाहर नीकला, अनुक्रम से बाल्यावस्था से मुक्त हुआ । उसका ज्ञान परिणत हुआ-वह समझदार हो गया और यौवनावस्था को प्राप्त हुआ । तब नन्दा पुष्करिणी में रमण करता हुआ विचरने लगा | नन्दा पुष्करिणी में बहुत-से लोग स्नान करते हुए, पानी पीते हुए और पानी भरकर ले जाते हुए आपस में इस प्रकार कहते थे-'देवानुप्रिय ! नन्द मणिकार धन्य है, जिसकी यह चतुष्कोण यावत् मनोहर पुष्कीरणी है, जिसके पूर्व के वनखण्ड में अनेक सैकड़ों खम्भों की बनी चित्रसभा है । यावत् नन्द मणिकार का जन्म और जीवन सफल है ।' तत्पश्चात् बार-बार बहुत लोगों के पास से यह बात सुनकर और मन में समझ कर उस मेंढ़क को इस
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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